संस्कृत में एक श्लोक हम पढ़ा करते थे जिसमें तीन के पुरुषों की व्याख्यान की गई है_प्रथम पुरुष,माध्यम पुरुष एवं उत्तम पुरुष. 'प्रथम पुरुष ' की श्रेणी में उन लोगों को रखा गया जो कुछ करना ही नहीं चाहते(यानी सभ्य भाषा में आलसी), 'माध्यम पुरुष' वो जो कुछ करना चाहते है और उस और कदम भी बढ़ाते परन्तु बीच रास्ते में ही उनका लक्ष्य साधना डैम तोड़ देती है. और 'उत्तम पुरुष ' वो जो अपने लक्ष्य पर चलते जाते है चाहे कितनी भी रास्ते में दुश्वारियाँ क्यों ना हो. पर ऐसे लोग बहुत कम ही होते हैं. ग्रीक इतिहास में प्लेटो ने एक राजनीतिक योद्धा की ऐसे ही कल्पना की थी और ऐसा करने में वहां व्यक्ति का चुनाव होता था और चुनावित व्यक्तिओ को कठिन प्रशिक्षण और नियम से होकर गुजरना पड़ता था. खैर ये सब तो हुई राजनितिक इतिहास की बातें , पर इसकी चर्चा भी आवश्यक है. वह इसलिए कि आज भारतीय समाज और राजनीति में जो बदलाव आ रहे उसे यहां के लोग शायद पहले कभी देखा नहीं. हालांकि या कहना गलत होगा कि इससे पहले कोई परिवर्तन आया ना हो. क्योंकि 'इतिहास' समय के संग समाज में आये परिवर्तन की दास्तान ही तो है.
आज हम जिस परिस्थिति में जे जी रहे हैं , बेशक क्रियाशील हर कोई है, जागरूक हर कोई है अपने भविष्य के प्रति, अपने परिवार के प्रतिऔर अपने सन्तान के प्रति. परन्तु जब समाज या देशहित की बात करें तो हमारी भूमिका संस्कृत के प्रथम पुरुष और मध्यम पुरुष वाली ही होती है. और जब हम देश के हालात और गतिविधि के बारे में चर्चा करते हैं तो कही खुद के लिए 'मध्यम पुरुष' को परिभाषित तो नहीं कर देते......
हमारे देश की परेशानी ही यही है कि वह प्रथम पुरुष और माध्यम पुरुष बन कर रहना चाहती है और जो थोड़े उत्तम पुरुष होने की चेष्टा भी करते उसे समाज की सहायता और सहानुभूति मिलने के स्थान पर उससे कहीं ज्यादा अवहेलना और तीखे बाण झेलने पड़ते हैं.
दूसरी परेशानी यह कि जब कोई कार्य समया के मांग अनुसार हो रहा होता है तो उसे किसी 'वाद' के साथ क्यों जोड़ देते हैं? तब जबकि हम और आप इस बात को जानते हैं कि समाज में जब कभी बदलाव आता है तो उसके परिवर्तन (चाहे सफल हो या असफल)को हम नाम देते हैं ना की पहले नाम दे दिया जाता है और फिर उसके अनुरूप क्रिया होती है. यह ठीक वैसे ही मुझे लगता है कि बच्चा अभी माँ के गर्भ में है पर उसका नामकरण कर दिया जाय. परिणाम जो हो वो देखा जाय.
मोदी जी ने ये तो नहीं कहा की वो समाजवाद लाना चाहते . वक्त की माँ ग के अनुसार कदम बढ़ाया ही है. जो करने वाले होते हैं उन्हें भविष्य सताती नही बल्कि प्रेरित करती है ,ख्वाब देखने वाले ही कमज़ोर पड़ते और समाज को कमज़ोर करते हैं .
राजनीति में क्या अच्छा होगा और क्या बुरा होगा वह सभी को पता होता है, पर अगर कोई अच्छी बातों के लिए कदम आगे बढ़ाए तो प्रोत्साहित करना हमारा कर्तव्य होता है. यह ठीक उसी प्रकार से की अगर परिवार के मुखिया पर अगर परिवार के सदस्य विशवास करना छोड़ दे तो वह मुखिया कैसा होग़ा और वह परिवार कैसा होगा इसका अंदाज़ा आप और हम लगा सकते. सोच, समझदारी ,क्रियाशीलता हर मुखिया में होती है परंतु सहारा,सहानुभूति और समर्थन की दरकार उसे अपने परिवार से होती है. दूसरी तरफ परिवार एक बच्चे के सुन्दर भविष्य की कल्पना में बहुत कुछ सही गलत को नज़र अंदाज़ कर उसे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करते है वैसे ही समाज भी एक परिवार होता है और उसके सुखद भविष्य की कल्पना में हम सब का यह दायित्व बनता है कि देश हित में लिए गए अच्छे कदमों का पुरजोर समर्थन करें और प्रोत्साहित करें. अच्छा समालोचक होना और एक विविधता वाले देश का मुखिया बन नई राहों पर कदम बढ़ाना आसान नहीं . और तब, जब की देश की जनता अपनी रईसी में 'क्यों 'और 'कैसे' जैसे सवाल पूछना भूल वो मॉल और पार्टी की संस्कृति को जी रही और सोच रही की देश का काम देश जाने हम तो अपना काम कर बैठे.
अभी देश एक ऐसे दो राहे पर खडी है जहां सफलता की सीढ़ी मुश्किल तो लग रही पर कठिन नहीं. बस थोड़े साहस की जरुरत है और भगवान ने हमे कलम का वरदान दिया है तो अपने कर्तव्यों का निर्वहन हो.
@Ajha.22.11.16
Monday, 21 November 2016
रहिमन या संसार में.....
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