Thursday, 14 September 2017

शाम्भवी दी(हिंदी दिवस के बहाने एक संस्मरण)

"शाम्भवी दी"
हिंदी दिवस के बहाने(संस्मरण)

"अरे कहाँ हो मंजू, सोना, मोना !कोई तो दया करो इस गरीब पर.....मुँह टेढिया टेढिया के बोलकर थक गई हूँ....."
"ऐसा क्या हुआ....शाम्भवी दी???
"अरे कुछ नहीं सोना...बस कुछ इतिहास के विभाग में अहिन्दी भाषी लोग आए थे....बात चीत थोड़ी लंबी खींच गई.....वो भी अंग्रेज़ी में.....अब तो चाय पिला दो."
हम सबकी चहेती, गंगा होस्टल में रहने वाली 'शाम्भवी दी'. बिल्कुल  ठेठ बिहारी मस्ती वाला अंदाज़...कैम्प्स में जहां से वो गुज़रती, विद्यार्थी लोग उनकी सादगी और बोलने केअंदाज़ के कुछ इस तरह दीवाने थे कि होस्टल तक उनका पीछा करते...और इस बीच किसी को उन्होंने टोक क्या दिया बस शर्म से मानों सैंकड़ों घड़ा पानी उस बच्चे पर पड़ जाता.
शाम्भवी दी पटना की एक अमीरघर की बेटी थी जिन्होंने मिशनरी स्कूल से शिक्षा ले उच्च शिक्षा दिल्ली के लेडीज़ श्रीराम कॉलेज से की और फिर जेएनयू में शोधकर्ता के रूप में रहीं.
वो छात्र जो दूसरे राज्यों से हिंदी माध्यम से पढ़कर आते उनके लिए शाम्भवी दी तो मानो वरदान से कम नहीं.ऐसा इसलिए कि इस युनिवर्सिटी में लोगबाग अंग्रेजी ही खाते-पीते,उठते-बैठते और सांस भी अंग्रेज़ी में ही लेते.ऐसे में कुछ दिनों के लिये नये प्रवेश लिए हुए हिंदी भाषियों  का तो जैसे अंग्रेज़ी संग सामना मानो कान बहरा हो जाना शरीर फूल जाना ,ऐसी ही हालत हुई रहती.
हालांकि शाम्भवी दी जितनी ही सुंदरता से हिंदी बोलती उतने ही सौम्यता से अंग्रेजी.परन्तु ज्यादा समय उनका वो अजबे-गजबे वाला भोजपुरिया हिंदी ... क्या गज़ब ढाता... इस बात के गवाह वहां का हर एक विद्यार्थी और प्रशिक्षक थे.
उनसे जब भी कोई हैरानीवश पूछ बैठता की तब जब कि वह इतनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलती हैं और इतनी कुशाग्र बुद्धि भी, फिर भी जानबूझ कर अपनी ऐसी छवि उन्होंने क्यों बना रखी हैं?तब वह पूरी गंभीरता से यही कहतीं .... "जैसे जीवन के लिये आक्सीजन जरूरी है वैसा ही महत्व भाषा का भी हमारे जीवन पर है.वो भाषा जिसे बोलकर अपना बचपन, अपनी जवानी अपने ढलते उम्र को जिया है उसकी जगह, समय की जरूरत अनुसार जिस नई भाषा को अंगीकार किया वो उसकी जगह भला कैसे ले सकता.वह तो हमारे आत्मा की आवाज़ है जो हमें उस तक पहुंचाती है, हमारे और उसके बीच एक रिश्ता कायम कराती है...रिश्ता करीबी का....प्रेम का...अपनेपन का...
उससे भला मुझे कोई कैसे अलग कर सकता???मुझ से मेरी भाषा का खोना यानि मेरे शरीर को मेरी आत्मा से अलग करना.....अच्छा,
तुम ही लोग  बताओ...क्या ऐसा कभी संभव है भला!!!
तीन वर्षों का सानिध्य उनसे और फिर देश के सर्वोच्च सेवा की परीक्षा में राष्ट्रीय स्तर पर 19सवें स्थान को प्राप्त कर अपने कर्मक्षेत्र की ओर शाम्भवी दी चल पड़ीं.कितना कुछ सीखने को मिला,कितना कुछ सिखा गईं उन तीन वर्षों में. हिंदी भाषा उनकी अपने जमीन से जुड़ाव और अक्षुण्ण प्रेम की अभिव्यक्ति का रूप थी जिसे वो भरपूर जीती थीं और इसे कभी अपने से अलग देखना भी नहीं चाहती थीं...
बस ऐसी ही थीं हमारी 'शाम्भवी दी'.
Aparna Jha

Monday, 4 September 2017

तूफान

"तूफान"
"हाँ माँ, अब बहुत हो चुका, नैना को जहां जाना हो वो जाए."
"अरे बेटा ! वो हमारी बहु है , वो भला कहां जाएगी...."
"माँ ,ये आप ऐसा सोचती हैं ना...परन्तु सुनैना कुछ और ही सोचती है.तंग आ गया हूँ  उसके अपने परिवार और दोस्तों की प्रशंसा सुनते सुनते...."
".....समय का अब और इंतिज़ार नही कर सकता...ना तुम उसकी अच्छी सास और ना ही मैं अच्छा पति बन पाया."
"ये भी बात सही है कि हम उसकी नादानियां भी समझते हैं और फिर उससे प्यार भी करते हैं."
"तो फिर ऐसा फैसला क्यों???"
"माँ समझा करो..."
"हम अपने प्यार के लिए उसकी जिंदगी तबाह तो नहीं कर सकते ना!
वैसे भी घर में तो अशांति ही तो छाई रहती है...."
"अब मैं क्या कहूँ..... जैसा तुम ठीक सोचो बेटा...."
तभी सुनैना की आवाज़ आई.वह अपने सूटकेस संग मायके विदा हो गई.
तीन-चार चार दिन बाद ....
"हैलो, नैना बोल रही हूँ....
तुम सुन रहे हो ना मेरी बात....
अजय मुझे प्यारी हवाओं के झोंकों की आदत है, ये मुझे किस तूफान में झोंक किनारे लग गए हो....
मुझे तुमलोगों की आदत है, मैं ऐसे में जी नहीं पाऊंगी....
तुम आते क्यों नहीं.... मुझे अपने और तुमलोगों के प्यार का अंदाज़ा ना था ...
आये तूफान को तुम्हीं टाल सकते हो....
सुन रहे हो ना मेरी बात....
हैलो....हैलो...."
Aparna Jha