Thursday, 28 March 2019
Wednesday, 27 March 2019
वोट अपील
*Congratulations!* for being shortlisted for the next phase of *Women WRITE Now Competition* - *Voting Phase*.
Story : स्मृति अशेष
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Friday, 8 March 2019
“कांता राय जी :महिला सशक्तिकरण की मिसाल.”
कांता रॉय जी लिखते तो सब हैं लेकिन आपके लेखनी में जो सादगी, विषयों का चयन और उसे बताने का तरीका और फिर समाधान…तारीफ के लिये शब्द ही नहीं हैं मेरे पास.आज के दिन यानि महिला सशक्तिकरण के दिवस पर आप के बारे में कुछ ना लिखूं तो शायद मेरा यह दिवस कुछ अधूरा-सा रह जाएगा.मैं आज पूरे दिन यही सोचती रह गई कि यदि आप पर लिखूं भी तो आखिर क्या! आपसे मेरा परिचय तो बहुत बाद में हुआ था परन्तु मैं आपके परिचय से, आपसे तीन साल पहले से जानने लगी थी.आपकी एक लघुकथा जहां पति-पत्नी के प्रेम और स्त्री-पुरुष के अहं की तकरार को बखूबी से शब्दों में ढाला था.लघुकथा शायद कुछ इस प्रकार से था कि किसी सोसायटी के एपार्टमेंट में एक नया परिवार रहने आया.अड़ोस-पड़ोस की निगाहें और कान शाम से ही उस नए घर पर चली जाती थी.यहाँ रोज ही रात में पति-पत्नी के लड़ने की आवाजें आतीं और अगले दिन जैसे सब-कुछ ठीक हुआ सा लगता था.पड़ोसियों ने भी सोचा कि एक दिन इस घर की महिला को समझाया-बुझाया जाए और एक दिन अपार्टमेंट की स्त्रियों ने बाज़ार से लौटती हुई उस महिला से रात की होती घटनाओं पर जिज्ञासा की. उस महिला ने हंसकर कहा कि ये हम पति-पत्नी का झगड़ा नहीं है, वो तो बड़े प्यार से रहते हैं.लड़ाई तो हमारे स्त्री-पुरुष के अहं की होती है….
वाकई संबंधों की नजाकत को समझना हो तो कोई आप से समझे.मेरा तभी आप से एक ताड़ सा जुड़ गया था. अभी इन भावनाओं के समंदर में गोंता लगा ही रही थी कि एक आपकी कविता पर नज़र गई_
“गुलमोहर की छाँव में
जब उस दिन
तुमने लिखा था
मेरी हथेलियों पर
अपनी सूखी खुरदुरी
तर्जनी से
चाँद का नाम
मैं समझ गयी थी
उसी वक्त
तुम्हारे छल को
फिर भी
बैठी रही संग तुम्हारे
और लिखवाती रही
अपनी कोमल गुलाबी
हथेलियों पर छल
शाम होने पर लौटते हुए
जब मैंने पलटकर नहीं देखा
तुम सहम गए थे
खालीपन को महसूस करते ही
उस वक्त
सिर्फ तुम रोए थे, मैं नहीं”
कान्ता रॉय
आपनके कितनी आसानी से कितने नज़ाकत से वो कह गईं जिसे स्त्री मन समझ तो जाती है,परन्तु जुबान तक शायद लाने का साहस नहीं जुटा पाती.ऐसे में आपकी यह लघुकथा कितनो को शायद हिम्मत देती हो…
“नए युग के चरण चिन्ह
आज स्त्रियों का रूढ़िवादी समाज के खिलाफ रोष प्रकट करने का दिन था सो वे वर्जनाओं के खिलाफ बाहर निकल आयी थीं। उन्होंने प्रदर्शिन के लिए शहर के व्यस्ततम चौराहे को चुनकर वहां शक्ति-मोर्चा निकालने का फैसला किया था। उस खास दिन को प्रचार-प्रसार करने के लिए कई एनजीओ काम कर रहे थे अतः अखबारों में सामाचार भी निकाला गया था। सुरेश की पत्नी भी इस मोर्चा में शामिल होने वाली थी।
सुरेश ने देखा कि अब तक जिस पत्नी को अपने पिटारे में बंद रखा हुआ था, वह भी फनफनाती हुई बाहर आने को फन उठाए आक्रोश की मुद्रा में थी। रोकने की कोशिश में जद्दोजहद में हारते हुए सुरेश अपना आपा खो चुका था। उसने पत्नी की ओर देख जोर से ‘चरित्रहीन’ कहा और पिच्च-से थूक दिया। इसका असर वह जानता था। उसे विश्वास था कि अब वह तिलमिला कर रह जाएगी और अपनी अस्मत बचाने के लिए बाहर जाना निरस्त कर देगी।
ठीक वही हुआ। तेज आँच पर उफनती-उबलती-सी पत्नी अचानक ठंडी पड़ गई। पत्नी हतप्रभ हो उसकी ओर देख रही थी। दीवान पर पसरा सुरेश अब मन में संतोष महसूस कर रहा था। क्षोभ में डूबी पत्नी अंदर जा चुकी थी। देर तक घर में सन्नाटा पसरा रहा। कुछेक घंटे बीतने पर चुप्पी तोड़ने की मंशा से सुरेश ने पत्नी को चाय बनाने को कहा। अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं होने पर वह कमरे का दरवाजा ठेल कर अंदर गया। वहां कोई नहीं था। पीछे का दरवाजा खुला था। वह अंदेशे से भर गया। हड़बड़ा कर कमरे में अंदर आया। ड्रेसिंग टेबल पर रखा नोटपैड का पन्ना फड़फड़ा रहा था।– नोटपैड उठा कर वह पढ़ने लगा-
“प्रिय पतिदेव, आपने शुरू से ही पत्नी और पालतू में भेद करना नहीं सीखा। लेकिन अब चीजें बदल गई है। इस बदलाव को स्वीकार करते हुए कृपया समय रहते इस भेद को सीख लें। और जब सीखना हो जाए तो मेरे नम्बर पर फोन कर लें, वापस आ जाउंगी। फिलहाल अपने गुजारे के लिए अपना स्त्री-धन और आलमारी में पड़े रुपए लेकर जा रही हूँ।”
_कान्ता रॉय.
आपके बारे में लिखूं भी तो क्या…आपने जिस प्रकार से अपने जीवन को जिया है और स्त्री जनित भावनाओं और रिश्तों की पकड़ आपमें है शायद आपकी सफ़लतासों और नित्य नए आयामों छूने की कुंजी यही हो.आपने एक तरफ तो कलकत्ता जैसे महानगर में जन्म ले शिक्षा-दीक्षा लिया.खुले विचारों वाले इस महानगर ने आपको खेलकूद के शिखर पर पहुंचने के लिये एक मैदान दिया तो वहीं दूसरी तरफ साहित्य क्षेत्र में विदुषिता का परिचय देने हेतु मंच मिला.पर जीवन कहीं एक जगह ठहर कर रुकती कहाँ…! महानगर के सँग देहाती जीवन से भी आप बखूबी परिचित रहीं. आपने ससुराल देखा,बहु बनी और फिर गृहस्थ आश्रम के सभी पक्षों और उतार-चढ़ावों से भी दो-चार होते रहीं.आज आप सफल साहित्यकार के संग सामाजिक कार्यकर्ता और सकुशल गृहणी भी हैं जिसे इन सबों में तालमेल बना अपनी विविधताओं को जीना आता है.
आप की सोच,आप की प्रगति के बारे मैं क्या कहूँ , यह भी आपकी लेखनी से प्रेषित शब्दों से स्पष्ट हुआ जाता है_
“न ही कोई मन्नत थी मांगी
हमारे बाजुओं में थी ताकत कि
तलवार हमारे हाथ में था …….
खुदी को बुलंद किया और
खुदी से पूछा था मैंने
कि बता ऐ दिल
आखिर तू चाहता क्या है!..”
और फिर जब आपने तय कर लिया कि आपको समाज में अपना योगदान देना ही है,इसका संकल्प आप लेते हुई बढ़ीं.स्त्री होकर जो आपके सामने पेश आया वो भी आपके ही शब्दों में बताना चाहती हूँ_
“वह कद्दावर औरत
पुरूषार्थ से भरी
सपनों के लिए
लालायित नहीं है
इसलिए सोती नहीं,
रात रात भर
जागती रहती है,
उसे रूप रंग से नहीं
मानवीय मूल्यों
संवेदनाओं से सरोकार है
इसलिए कठोर परिश्रम से
गुजरती है
विपरित हवाओं से
टकराती है
वह कद्दावर औरत
अब मर्दों को
मर्दों सी लगती है।”
—–कान्ता रॉय
आज जब आप समाज और साहित्य में अपने सोच का विस्तार करते ही जा रही हैं तो आपको अनुभव यह भी होने लगा है कि_
“हनुमान जी को भी अपने बलवान होने का पता बहुत बाद में लगा था। लेकिन वे तो अमर थे, उनके पास आयुसीमा वाली दिक्कत भी नहीं थी लेकिन हमारे पास तो आयु की निश्चित सीमा है। देर से आयी हूँ तो उसकी कीमत चुकानी ही होगी। “
कान्ता रॉय
आज आप चाहती हैं कि समाज के लोग,विशेष कर स्त्रियां खुद् को जागृत करें, सृजनशील हों और आम जनजीवन में कंधे से कंधा मिला कर चलें.तभी तो आप लिखतीं हैं_
“आसमान को ताकने में
गर्दन को ऊँची रखने में
औपचारिक मुस्कानों से
खोकर अंतरंग रिश्तों को
बिना किसी आहट के
वक्त के नामालूम ढंग से
गुजर जाने के बाद
जब आगे नहीं बढ़ पाओगे
उस दिन उकता जाओगे तुम
यूं ही बेमतलब के जीने से
तब कहो और
नया क्या-क्या करोगे?”
आज आप का मन विकल होता है समाज के कुछ ऐसी विसंगतियों से जहाँ ‘बलात्कार’ जैसे विचलित कर जाने वाले शब्द से लोग घृणा करते हैं परन्तु लोग ये भूल जाते हैं कि समाज में शिकारी कौन?शिकार कौन?उसके फलस्वरूप परिणाम को अभिशाप स्वरूप कोई जीए क्यों.आप चाहतीं हैं कि समाज शिकारी को जो सज़ा दे वो तो हो ही परन्तु जो शिकार होती है उसे बहिष्कृत होने से बचाया जाए.उसे समझाया जाय कि जो कुछ हुआ वह एक गंभीर बीमारी का नतीजा था और अब जब बीमारी पकड़ में है तो उसकी दवा करा फिर उसे मुख्य धारा से जोड़ा जाए ना कि उसे मृत्यु दंड या फिर अभिशप्त जीवन जीने के लिये छोड़ दिया जाय.इसी से जुड़े अनेकों प्रश्न समस्याओं पर आपकी नजर है और नित्य प्रति आप इसके समाधान की कड़ी जोड़ने की कोशिश में लगी हैं.हर परिवार खुशहाल हो और एक सुव्यवस्थित जीवन व्यतीत करे यही आपकी मनोकामना होती है,तभी तो आप लिखती हैं
“ख्वाहिशें इश्क है
इश्क से उम्मीदें हैं
उम्मीदें बेड़ियाँ हैं
बेड़ियों में
जकड़न है
जकड़न कारण है
तृष्णा का
तृष्णा कारण है
ख्वाहिशों का
ख्वाहिशें इश्क है
इश्क से जिंदगी है
जिंदगी से
छुटकारा मुश्किल है
इसलिए
इश्क, ख्वाहिशें,
बेड़ियां, जकड़न,
तृष्णा, जिंदगी
सब सलामत रहे
ताकि जिंदगी सलामत रहे।”
_कान्ता रॉय.
आपकी उपलब्धियों के बारे में कहूँ तो साहित्य शिरोमणि सम्मान , इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट , श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान और अनेकों ऐसे सम्मानों से आप विभूषित होती रहती है
यदि आपके कार्यक्षेत्र की बात करूँ तो आप लघुकथा के लेखन के तकनीकी जागरूकता प्रति एक सफल अभियानी के तौर पर प्रतिष्ठित हैं.हिन्दी साहित्य और भाषा के प्रति प्रतिबद्धता के लिए समर्पित लेखिका के रूप में बतौर जानी जाती हैं.
आप साहित्यिक संस्था में हिंदी लेखिका संघ मध्यप्रदेश , मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की प्रशासनिक अधिकारी हैं।अक्षरा पत्रिका की सहयोगी सम्पादक।अखिल भारतीय साहित्य परिषद ,मध्यप्रदेश लेखक संघ , कलामंदिर भोपाल , विश्व मैत्री संघ मुंबई . सेवाभारती ,आनंद आश्रम भोपाल की आजीवन सदस्य सहित, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की सम्मानित सदस्य हैं.
इसके अतिरिक्त यही कह सकती हूँ कि लघुकथा और कविता आपकी विधा है. आप अनेकों विधाओं में काम करने के बाद भी ,मुख्य रूप से लघुकथाकार के रूप में समर्पण , कोलकाता में अपने छात्र जीवन के दौरान कई सांस्कृतिक संस्था से जुडी रहीं. महाजाति सदन , रविन्द्र भारती , श्री शिक्षा यतन हाॅल में आपने कई स्टेज शो किये है.
आज आप कई सालों से आप भोपाल निवासी हैं और व्यवसायिक महिला के रूप में भी जानी जाती हैं.
संप्रति लघुकथा पर आधारित आप एक समाचार पत्र ‘लघुकथा वृत्त’ जो आरम्भ में ‘लघुकथा टाइम्स’ हुआ करता था, आप अपने कई साहित्यकार मित्रों के संग प्रकाशित कर रही हैं.आपकी सोच यह भी है कि लघुकथा के क्षेत्र में शोधार्थियों के लिये भी आप की प्रकाशन संस्था मील का पत्थर साबित हो.
आज ‘महिला दिवस’ पर मेरी हार्दिक शुभकामनाएं
©अपर्णा झा
फरीदाबाद.
आग ही आग है यहाँ....(महिला दिवस)
"आग ही आग है यहां..."
मैं फेसबुक पर बी एच यू के एक शोधार्थी को बड़े गौर से फॉलो करती हूं.उन्हें फ़ारसी,हिंदी और संस्कृत में कमाल हासिल है.जितनी आसानी से विशुद्ध हिंदी में रचना गढ़ते हैं उतनी ही खूबसूरती से संस्कृत में और उतनी ही खूबसूरती से फारसी में भी रचना गढ़ते हैं.(एक चर्चा ऐसे शख्स पर भी, फिर कभी),आज उनकी रचना वाल पर दिखी जो गुज़रे फारसी,उर्दू के शायरों के पसंदीदा अल्फ़ाज़ का सहारा लेकर फ़ारसी में लिखी थी और बड़ी खूबसूरती से हिंदी में अनुवाद भी दिया था.मुझे भी वो अल्फ़ाज़ पसंद पड़े और समसामयिक परिप्रेक्ष्य और आज के दिन की महत्ता को देख बड़ा सटीक प्रतीत हुआ...
"आग ही आग है यहां."
सच पूछिये तो आज महिला सशक्तिकरण की आड़ में बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसके कारण जिनके परवाजों को आसमान मिलना चाहिये, जिन चिंगारियों को एक लॉ और सही हवा का रुख चाहिये,उन्हें वास्तविक रूप में मिल पाता है या नहीं ये तो एक विषय है, पर इस नाम जो महिलाएं और बच्चियां भ्रामक पथ पर अग्रसर हुई जाती हैं वह चिंतनीय है.
आज महिला शक्तिकरण के नाम पर अखबारों के पेज 3 को देखिये. वस्तु, विचार के बाज़ारवाद हेतु प्रचार को देखिये, विवाह या किसी अन्य कार्यक्रम में स्त्रियों की साज-सजा को देख लीजिये.ऐसा लगता है कि हज़ारों वर्ष की गुलामी ने यदि महिला को कैदी बनाया तो आज की आज़ाद सोच ने कहीं उसे विलासिता का सामान तो नहीं बना दिया. आज इन आज़ाद हवाओं ने सोचने की शक्ति ही खत्म कर दी है.ऐसे लोगों की भीड़ इतनी भयानक है कि 'आज़ादी' की जो सही परिभाषा है वह तो कहीं अपने में घुटते दम के संग अंतिम सांसें गिन रहा है.समाज निर्माण की आड़ में मुख्य इकाई को ही भूलते जा रहे हैं हम....बिखर रहे हैं परिवार और बिखर रहा समाज...हर कोई एकाकी जीवन जीने को मजबूर है, हर कोई की सोच यही है कि उसे कोई समझता नहीं...भीड़ और बदलाव की दुनिया ऐसी मनमोहिनी कि यदि इसमें उलझे तो उलझते ही चले गए.फलस्वरूप फायदा किसे और नुकसान किसे? फायदा बाज़ार को, वो इसलिये कि इंसान स्वभाव से तो सामाजिक है पर रिश्तों की अहमियत कमजोर होने के कारण यह समाज की कमजोर कड़ी बन गई है और बाज़ार हमेशा ही अपने उत्पाद को बेचने हेतु समाज की इन्हीं कमजोर कड़ियों की तलाश में रहता है.अपने मनलुभावन प्रचार के माध्यम से लोगों के मनोविज्ञान को अपना शिकार बना लेता है.मनुष्य भी कबतक अपने पिंजड़े में कैद रहे,पर इसे अब समाज की आवश्यकता नहीं,इसे अपने मन बहलाने के लिये बाज़ार जो मिल गया गया है.साथ ही पैसों की अकड़ ऐसी की आपस में ही यह संवाद करना कि "मुझे किसी की जरूरत नहीं" ऐसी सोच से खुद् में खुद् को संतुष्ट रखना...ना जानें हमें किस ओर ले जाए.
एक समय था जब लोगों को समझ और रिश्तों की कद्र थी.एक लिहाज था.लोग अपने परिवार से ज्यादा अपने आस-पास से घबराते थे(यह घबराना यानी डर नहीं बल्कि कहें तो लिहाज या सम्मान सूचक था).और,ऐसे में हर परिवार खुद् को सुरक्षित महसूस करता था कि पडोस वाले ने भी अगर कुछ गलत देख लिया तो तत्काल उसे जो करना है वह तो कर ही जायेगा और यथासम्भव परिवार को भी सूचित कर देगा.आज परिस्थितियां ऐसी बदली हैं. इस बदलते परिवेश में हर किसी को अपने जानो-माल का खौफ सताता है.फलस्वरूप अपनो की भी बातें कोई देखकर भी कभी बोलता नहीं.फलस्वरूप अब गलती करने वाले बेख़ौफ़ हो चुके हैं.उनमें वर्तमान को जीने की ऐसी उन्माद है कि भविष्य में क्या होगा उसकी सोच ही नहीं रखते.
आज बिखरते परिवार और बिखरते समाज के लिये कहीं ना कहीं जिम्मेदार हम भी हैं.हममें सुनने और सहिष्णुता का गुण जो खत्म हो गया है...बस भीड़ का हिस्सा बनने का पागलपन सर पर चढ़ा हुआ है.
जब किसी काबिलियत को ऐसे समाज की बलिवेदी चढ़ते देखती हूँ तो वाकई खून खौलता है कि समाज में ये कैसा बंटवारा???
"जिन चिंगारियों से रौशनी की है उम्मीद उन्हें
अंधियारा ही क्यों नसीब !
जिन चिंगारियों से उन्माद और वहसिपना कि बू आती है, फैला है चहुँ ओर
आग ही आग है सरे जहां में, कहीं उजियाला होकर ,कहीं अंधियारा होकर..."
अपर्णा झा