Wednesday, 21 September 2016
"पत्थर : ... सी दो टूक बातें" .......….............................. चल ही पड़ी जब बात पत्थरों की कौन हो बेहतर वो जो बैठा बुत बना देवालयों में या वो जो है रास्ते का पत्थर सोचना था कैसा मानो तो देवता नहीं तो पत्थर धर्म दिखी तो रुक गए आस्था बनी तो झुक गए हुई क्या विरक्ति एक संग दे मारा और खून हो गए जिसकी जैसी हुई आस्था बस पत्थर भी दिखा उस जैसा आइना भी दिखता देख कर चेहरा खुद ही फिर समझ जाएगा शैतान बसता है अंदर या फिर खुदा फिर क्यों हो झुकना बुत के आगे जब कायनात ही हो तेरे आगे इसी में बस तूँ अपना मन रमा रे यही है बस तेरा अपना रे. @Ajha.22.09.16
http://wp.me/p7Dq43-7j
Tuesday, 20 September 2016
बहकाये हुए क्यों
http://wp.me/p7Dq43-7e
बहकाये हुए हो क्यों
कल तक जो था तुतला के बोल रहा
मेरी ही हथेली थामें वो
हँसते हुए था चल रहा
थी ख्वाहिश जिसे आसमाँ की
आज भला क्यों वो चुप हो गया
तब की बातें थीं, माँ की गोद थी
था वो खुशकिस्मती को लिख रहा
पर वो वरक़ आज कहीं गुम हो गया
ऐसी इक बदहवा चली कि
उसमें कहीं गुम तुम हो गए
कैसा रहबर तुझको मिला कि
सारे आशनाई दूर तुमसे हो गए
ये कैसी बर्बरता तुमने सीखी
लोग मातम हैं मना रहे
और दूर कहीं छुपे हुए तुम खुश हो रहे
ये राहे बहिश्त कैसी!
जो जीना तुझे आया नहीं
इस जीवन की ख़ुशी ना मना सके
अनदेखी जन्नत में तुम हो ईद मना रहे
तारीख है गवाह इसकी
'तेरे-मेरे' के किस्से में
भला ना हुआ किसी का
नुक्सान ही नुक्सान हर कोई हैं उठा रहे.
बस करो अब इक गहरी साँस लो
रूह को जो इक जिंदगी मिली
ज़रा उसकी कदर करना सीख लो.
@Ajha.20.09.16
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