Saturday, 6 January 2018

घर-संसार

"घर संसार"

"देखो ना पांच महीने से अपने बेटी-दामाद  को संभाल ही तो रही थी.सोचा था, जैसे भी हो नाती को पांच महीने का पाल-पोस कर ही उसके दादा के घर भेजुंगी.कितना अरमान था ख़ुशी-ख़ुशी बेटी को ससुराल भेजने का, सब बेकार गया." शाम में अपने ड्राइवरी की नौकरी से गजानन घर लौटे ही थे कि पत्नी अपने रुआसें स्वर में फूट पड़ी. दुःख तो गजानन को भी हुआ था और पत्नी को समझाते हुए खुद भी टूट पड़े थे. समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. विवाह के डेढ़ साल के बाद के अंतराल में गजानन ने ना जाने कितने तोहफे अपनी बेटी के ससुराल भेजे थे. अलावे इसके कि जब वह गर्भवती हुई तो गजानन ने बेटी को उसके मायके बुलवा लिया था. बिचारे सामजिक रिवाज़ और दो बेटे पर एक बेटी का पिता होना भुगत रहे थे. अपनी ड्राइवरी से इतनी कमाई करने की कोशिश करते  जिससे कि उनके परिवार का भरण-पोषण हो जाए. इसके लिए बेशक दिन और रात ऑटो रिक्शा क्यों ना चलाना पड़े.
             आज गजानन अपनी वेदना अपने पुराने मालिक -मालकिन को सुना रहा थे,जिनसे उसे गहरी आत्मीयता थी. मालकिन ने तब गजानन को समझाया था _ "देखो गजानन, बेटी के लिए तुम्हारी ये तड़प वाकई सच्ची है, पर हमेशा याद रखना , अपने बच्चों के आगे कमजोर मत पड़ना. कुछ करना है उनके लिये तो  एक मजबूत नींव की मानिंद खड़े रहो, ना कि एक बैसाखी की तरह जो हमेशा तुम्हारा सहारा ले खड़ा हो. तुम्हारी जो जिम्मेदारी थी वह पूरी हुई, अब यह उनकी जिंदगी का कैनवास है ,अब उन्हें खुद से इस कैनवास में रंग  भरने दो."@Ajha.05.01.17
©अपर्णा झा.

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