"स्वप्न मन का मेरे"
मेरे जीवन की परिक्रमा
तुम्हारा साथ
धूरी है मेरे अंतस
से निकलती भावना जो,
शब्दों के रूप में
कविताओं का रूप ले
ना जाने किन-किन लोकों का
विचरण कर रही
विहंगम दृश्यों से नाता जोड़ती
कभी परियों के देश
ले परियों का भेष
स्वप्नलोक के सपने देखती
कभी स्वर्गलोक में संग
अप्सराओं के नाचते थिरक रही
कभी तानसेन की रागिनियाँ बन
दीपक सा प्रज्वलित हो
जगत से तम दूर कर रही
कभी मल्हार हो बरस-बरस
खुशियां बरसा रही
बासंती हवाओं में खुद को
विलीन कर
लुकाछिपी खेलती
फिर से वही वेद-पुराणों की भाषा बन
पुनः ऋचाओं का सृजन कर
संस्कार और संस्कृति की
पहचान बन
ब्रह्मांड में प्रेम सुधा बरसाती
ऐसी में सराबोर होते रहते
तुम-हम और हम-तुम, संग
सारे संगी-सहारे
विलुप्त हुआ जाता अहंग
और सार तत्व
"वसुधैव कुटुम्बकम"
यही हमेशा सौंदर्य बोध
भूत, वर्तमान और भविष्ये
मेरे सपनों के इस संसार में
तुम होना मेरे संग प्रिये.
@Ajha.11.05.17
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