Thursday, 30 July 2015

उत्पत्ति रसगुल्ले की













मैं समझती हूँ अध्ययन एक प्रकार का  नशा है. ज्ञान के अथाह सागर में जितने भी गोंते लगाओ , इसके अंत को समझना मुश्किल ही नहीँ नामुमकिन है . इस नशापान का रसास्वादन करते हुए मैं रसगुल्ले के खोज में पहुँच गयी . मैथिल होने के कारण रसगुल्ले से मेरा खासा लगाव रहा है . मुझे अबतक जो कुछ पता था वह यह की रसगुल्ले की उत्पत्ति का स्थान बंगाल है और मुझे लगता है कि हर आम- ओ - ख़ास की यही धारणा है . परंतु , ये तथ्य नहीँ है . इसके पीछे का इतिहास हमें उस समय में ले जाता है जब पुर्तगाली अपने मसालों के व्यवसाय को भारत में समुद्र  के रास्ते पूर्वी तट पर बढ़ाने आये
थे . पूर्वी तट यानि के ओडिशा प्रदेश .आप भी सोच रहे होंगे की मैं यह क्या बताने लगी . दरअसल रसगुल्ला बनाने के लिए हमें छेना की ज़रूरत होती है . दूध से छेना निकालने का हुनर पुर्तगालियों के पास था . व्यवसाय के बहाने  बढ़ी अन्तर्रन्गता के कारण ओडिशा वासियों को ये हुनर पुर्तगालियों से प्राप्त हुआ . और यहीं से शुरू हुआ छेना से प्रायोगिक पकवानों के बनाने का सिलसिला . कहते हैं कि 13वीं सदी में यहाँ माँ लक्ष्मी को प्रसाद के रूप में रसगुल्ले का प्रचलन महत्वपूर्ण हो चला था .
                       अगर हम इसके प्रचार और प्रसार के बारे में  कहें तो इस काल के आस -paas
ओडिशा , बिहार और बंगाल एक ही हुआ करता था . उस समय में और बाद के समय में भी बड़े - बड़े घरों में khaana बनाने वाले महराज ओडिशा के ब्राह्मण ही हुआ करते थे . ये पाक कला में पारंगत  थे और इनकी शैली का प्रभाव बिहार और बंगाल में ख़ासतौर से है .
बंगाल और बिहार में रसगुल्ला बनाने की कला
इन्हीं ओडिशा के महराजों से जो कालांतर में बंगाली निवासी हो गये थे , उन्ही से सीखी गयी थी .
ये बात और है की 1868ईo में कलकत्ता वासी
नवीन दास जिन्हें "  Rasgulla s Columbus" कहा जाता है , रसगुल्ले की खासियत को नये रूप में प्रस्तुत किया . समय और आगे बढा तो रसगुल्ले अपने  हल्केपन(sponginess) से जाने जाना लगा . नवीन दास के बेटे K . C . Das ने रसगुल्ले को देश -  विदेशों तक मशहूर किया . आज के समय में इस मिठाई की माँग इतनी बढ़ गई है की अब भारत के अन्य हिस्सों में भी बनायी जाती है जिसमें बीकानेरवालों का नाम विशेषकर आता है . तो ये थी रसगुल्ले की कहानी .


Wednesday, 29 July 2015

खुदाई

जब भी आप कोई कविता पढ़ते हैं तो उसमें खुद , खुदा और खुदाई शब्द बहुत मिलते हैं . इन शब्दों का ख़ास करके सूफी शायरी में प्रयोग होता है . मेरे जीवन का ये अभिन्न हिस्सा है जिसे मैं चाह कर भी अलग नहीँ कर सकती . मेरे उम्र के साथ इनकी पकड़ भी गहरी और मजबूत होते जा रही है . अब ये आप पर है कि इस प्रेम को आप रूहानि मानते हैं या दुनयावी . बस मर्म को समझने की कोशिश करियेगा .

कभी सोचा कि ,
ये खुदाई क्या होती है ?
खुदाई ,
खुदा से बना इक रूप है ,
एक अहसास है ,
एक जज्बात है ,
एक इबादत है ,
एक समर्पण है ,
जहाँ इंसा की खुदा
से होती बात है .
जहाँ सिर्फ़ प्रेम का
ऐहसास है ,
जहाँ दुनिया गौण है ,
जहाँ छाया गौण है ,
जहाँ माया मौन है .
जहाँ शून्यता है ,
जहाँ मेरी खुदाई है और
एक मेरा खुदा है .
मत रोको ,
मत टोको ,
मत सोचो ,
मत ढालो इसे ,
इंसानी रिश्तों में .
क्योंकि वो तो रमा है
खुदा की खुदाई में .

नारी

ऐ मेरे भगवान ,
ये तूने क्या कर डाला .
क्यों मिट्टी में डाली जान ,
और नारी बना डाला .
जिसका वजूद इंसाँ को
ना जीने देता है ,
ना मरने देता .
कहने को तो नारी
एक सुंदरता है ,
एक विश्वास है ,
पर जिसके जन्म से
सबों के बदले- बदले से
एहसास हैं .
कहने को तो नारी
ससुराल की लक्ष्मी है .
पर कौन जाने ,
ये उसकी बदकिस्मती है .
नारी तुझे ये कैसा
जीवन दे डाला _
कहने को तो तुम में
चंद्रमा की शीतलता ,
मधु की मधुरता ,
मोरनी सी चाल है .
क्या सच में ये हाल है ?
ज़िंदगी की रफ़्तार ने ,
ज़माने के कुचाल से
विशेषण सारे विलीन हो गये .
ज़िंदगी की आज़माइश में
जो बचा रहा ,
वो है दुर्गा का रूप ,
नारी तेरा यही रूप ,
तेरा यही स्वरूप .

Tuesday, 28 July 2015

श्री कलाम मेरी नज़र मॆं

मेरी नज़र में श्री कलाम -
जहाँ तक मुझे याद है,  तो , कलाम साहब के व्यकित्व को मैं ने अपने पिताजी के माध्यम से जाना था . उन दिनों पिताजी सुरक्षा विभाग में कार्यरत थे . उन दिनों सुरक्षा विभाग . अपनी शताब्दी समारोह मना रहा था . ऐसे में इस विभाग में कार्यरत लोगों के हौंसलाफजायी के लिये श्री कलाम को आमंत्रित किया गया था . उन दिनों " Mission Future India " के काफी चर्चे हुआ करते थे . पिताजी को कलाम साहब के भाषण का रसास्वादन का मौका उसी शताब्दी समारोह में मिला था . मुझे आज भी याद है उनका भाव विभोर होना . उन्होंने मान लिया था कि श्री कलाम एक सूत्र (फॉर्मूला )हैं जिनकी अभिव्यक्ति देश की एकता और सुदृढता बनाये रखेगी और विश्वपटल पर भारत का नेतृत्व होगा .
      यकीन मानिये उस भाषण का नशा तब से लेकर अबतक नहीँ उतरा है . मेरी . नज़र में कलाम साहब एक फरिश्ता थे जिनके आगमन से  वातावरण अर्थपूर्ण , सकारात्मक और खुशनुमा हो जाये . जिनका अस्तित्व तपस्वियों सा ठहराव , शीतलता , शुद्धता और पवित्रता की अनुभूति कराये और जिनके समक्ष सारे "  वाद " (ism), भाषा, स्थान बेमाइने लगे . ऐसे इंसान का ना होना ऐसा प्रतीत होता है मानो सपने में फ़रिश्ते से बात हो रही हो और  नींद खुल जाये और वो फ़रिश्ता सामने से गायब हो जाये . मेरे मन में आपके लिये यही  भावना रही है . आपकी कमी हमेशा खलेगी . आप जैसे सच्चे राष्ट्रवाद को मेरा सलाम .

मेरा अंतर्मन

         15सालों के एक लम्बे अंतराल के बाद , आज से ठीक चार महीने पहले मैंने अपनी लेखनी को फ़िर से थाम्हा था . पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण अपने बारे में सोचना  छोड़ दिया था . अब जबकि व्यस्तताएँ कम हो गयी तो मन में एक अनजान सी बेचैनी होने लगी , एक कसक थी ,  एक सकुचाहट थी कि आखिर मेरे मन में ये कैसी खलबली है जिसे मैं पहचान नहीँ पा रही हूँ . ये खलबली मेरे परेशानी का सबब बनते जा रहा था . तभी,  जैसे माँ अपने बच्चों की परेशानी को बिना कहे भांप जाती  है मेरे बेटे और मेरे पति ने भी मेरे अन्तर्द्वन्द को समझ लिया था . मुझे लेपटॉप और मोबाइल का तोहफ़ा देकर , जिन बातों से , सवालों से , खयालातों से , किताबों से किनारा कर लिया था आज वही फ़िर से मुझे ला खड़ा कर दिया है .
          अब फ़िर से मैं अपने दुनिया में जीने लगी हूँ . उन्ही सूफी खयालातों में , अपने होने के सवालातों में डूबी रहती हूँ . अब मेरे खयालात हैं , सवालात हैं , जवाबों की तलाश है . देखते हैं कहाँ तक चल पाती हूँ .
      " इश्क के इंतहाँ अभी और भी हैं ,
        ज़िंदगी जीने के मकां और भी हैं ,
        देखे कहाँ तक ले जाती है ये ज़िंदगी ,
         ऐ ज़िंदगी आज़माइश तेरी भी है
           और मेरी भी . "
पर इस आज़माइश के दौर में एक बात अच्छी भी हुई . वो ये कि _
         " चला तो था तन्हा जानिबे मंज़िल ,
           काफिले मिलते गये कारवां बनता गया ."
बस सभी जनों का आशीर्वाद बना रहे . धन्यवाद .