

मैं समझती हूँ अध्ययन एक प्रकार का नशा है. ज्ञान के अथाह सागर में जितने भी गोंते लगाओ , इसके अंत को समझना मुश्किल ही नहीँ नामुमकिन है . इस नशापान का रसास्वादन करते हुए मैं रसगुल्ले के खोज में पहुँच गयी . मैथिल होने के कारण रसगुल्ले से मेरा खासा लगाव रहा है . मुझे अबतक जो कुछ पता था वह यह की रसगुल्ले की उत्पत्ति का स्थान बंगाल है और मुझे लगता है कि हर आम- ओ - ख़ास की यही धारणा है . परंतु , ये तथ्य नहीँ है . इसके पीछे का इतिहास हमें उस समय में ले जाता है जब पुर्तगाली अपने मसालों के व्यवसाय को भारत में समुद्र के रास्ते पूर्वी तट पर बढ़ाने आये
थे . पूर्वी तट यानि के ओडिशा प्रदेश .आप भी सोच रहे होंगे की मैं यह क्या बताने लगी . दरअसल रसगुल्ला बनाने के लिए हमें छेना की ज़रूरत होती है . दूध से छेना निकालने का हुनर पुर्तगालियों के पास था . व्यवसाय के बहाने बढ़ी अन्तर्रन्गता के कारण ओडिशा वासियों को ये हुनर पुर्तगालियों से प्राप्त हुआ . और यहीं से शुरू हुआ छेना से प्रायोगिक पकवानों के बनाने का सिलसिला . कहते हैं कि 13वीं सदी में यहाँ माँ लक्ष्मी को प्रसाद के रूप में रसगुल्ले का प्रचलन महत्वपूर्ण हो चला था .
अगर हम इसके प्रचार और प्रसार के बारे में कहें तो इस काल के आस -paas
ओडिशा , बिहार और बंगाल एक ही हुआ करता था . उस समय में और बाद के समय में भी बड़े - बड़े घरों में khaana बनाने वाले महराज ओडिशा के ब्राह्मण ही हुआ करते थे . ये पाक कला में पारंगत थे और इनकी शैली का प्रभाव बिहार और बंगाल में ख़ासतौर से है .
बंगाल और बिहार में रसगुल्ला बनाने की कला
इन्हीं ओडिशा के महराजों से जो कालांतर में बंगाली निवासी हो गये थे , उन्ही से सीखी गयी थी .
ये बात और है की 1868ईo में कलकत्ता वासी
नवीन दास जिन्हें " Rasgulla s Columbus" कहा जाता है , रसगुल्ले की खासियत को नये रूप में प्रस्तुत किया . समय और आगे बढा तो रसगुल्ले अपने हल्केपन(sponginess) से जाने जाना लगा . नवीन दास के बेटे K . C . Das ने रसगुल्ले को देश - विदेशों तक मशहूर किया . आज के समय में इस मिठाई की माँग इतनी बढ़ गई है की अब भारत के अन्य हिस्सों में भी बनायी जाती है जिसमें बीकानेरवालों का नाम विशेषकर आता है . तो ये थी रसगुल्ले की कहानी .