Tuesday, 28 July 2015

मेरा अंतर्मन

         15सालों के एक लम्बे अंतराल के बाद , आज से ठीक चार महीने पहले मैंने अपनी लेखनी को फ़िर से थाम्हा था . पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण अपने बारे में सोचना  छोड़ दिया था . अब जबकि व्यस्तताएँ कम हो गयी तो मन में एक अनजान सी बेचैनी होने लगी , एक कसक थी ,  एक सकुचाहट थी कि आखिर मेरे मन में ये कैसी खलबली है जिसे मैं पहचान नहीँ पा रही हूँ . ये खलबली मेरे परेशानी का सबब बनते जा रहा था . तभी,  जैसे माँ अपने बच्चों की परेशानी को बिना कहे भांप जाती  है मेरे बेटे और मेरे पति ने भी मेरे अन्तर्द्वन्द को समझ लिया था . मुझे लेपटॉप और मोबाइल का तोहफ़ा देकर , जिन बातों से , सवालों से , खयालातों से , किताबों से किनारा कर लिया था आज वही फ़िर से मुझे ला खड़ा कर दिया है .
          अब फ़िर से मैं अपने दुनिया में जीने लगी हूँ . उन्ही सूफी खयालातों में , अपने होने के सवालातों में डूबी रहती हूँ . अब मेरे खयालात हैं , सवालात हैं , जवाबों की तलाश है . देखते हैं कहाँ तक चल पाती हूँ .
      " इश्क के इंतहाँ अभी और भी हैं ,
        ज़िंदगी जीने के मकां और भी हैं ,
        देखे कहाँ तक ले जाती है ये ज़िंदगी ,
         ऐ ज़िंदगी आज़माइश तेरी भी है
           और मेरी भी . "
पर इस आज़माइश के दौर में एक बात अच्छी भी हुई . वो ये कि _
         " चला तो था तन्हा जानिबे मंज़िल ,
           काफिले मिलते गये कारवां बनता गया ."
बस सभी जनों का आशीर्वाद बना रहे . धन्यवाद . 

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