जब भी आप कोई कविता पढ़ते हैं तो उसमें खुद , खुदा और खुदाई शब्द बहुत मिलते हैं . इन शब्दों का ख़ास करके सूफी शायरी में प्रयोग होता है . मेरे जीवन का ये अभिन्न हिस्सा है जिसे मैं चाह कर भी अलग नहीँ कर सकती . मेरे उम्र के साथ इनकी पकड़ भी गहरी और मजबूत होते जा रही है . अब ये आप पर है कि इस प्रेम को आप रूहानि मानते हैं या दुनयावी . बस मर्म को समझने की कोशिश करियेगा .
कभी सोचा कि ,
ये खुदाई क्या होती है ?
खुदाई ,
खुदा से बना इक रूप है ,
एक अहसास है ,
एक जज्बात है ,
एक इबादत है ,
एक समर्पण है ,
जहाँ इंसा की खुदा
से होती बात है .
जहाँ सिर्फ़ प्रेम का
ऐहसास है ,
जहाँ दुनिया गौण है ,
जहाँ छाया गौण है ,
जहाँ माया मौन है .
जहाँ शून्यता है ,
जहाँ मेरी खुदाई है और
एक मेरा खुदा है .
मत रोको ,
मत टोको ,
मत सोचो ,
मत ढालो इसे ,
इंसानी रिश्तों में .
क्योंकि वो तो रमा है
खुदा की खुदाई में .
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