Monday, 29 February 2016

कांटों की चुभन

कांटों की चुभन
- - - - - - - - - - - -
फ़िर बैठी हूँ सोचने
काश की कोई पत्थर पिघल जाता
बारिश में बरसते शोले
फ़िर से पानी में लग जाती आग
रूह से रूह तो मिलाई
ज़माने भर का ग़म देकर
फ़िर क्यों दी संग तुमने जुदाई
ये कैसी है तेरी खुदाई
फ़िर से मुझे वो मिलन की रात याद आई .
@ Ajha . 26. 02. 16

No comments:

Post a Comment