ये कविता मेरे कविता लेखन के शुरुआती दिनों के हैं. एक दिन पतिदेव अनायास ही बोल पड़े की कभी हमारे लिये भी तो लिखो , तब जो शब्द मेरी लेखनी ने कविता की नज़र किये वो यही थी जो आज मैं सान्झा आप से कर रहीहूँ .
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
हमारी दास्तां
- - - - - - - - -
मेरे हमसफ़र , मेरे हमसफ़र
मुझे आ रही है तुझ से सदा
आ ज़रा मेरे पास आ
मुझे सुननी है तूझसे
हमारे इश्क की दास्तान
ये ना था कोई इत्त्फाक
ना थी ये कोई इश्क की दास्तां
ना इशारों की कोई बात थी
जहाँ हमसे थे तुम आशना
वो शादी की रात थी
शहनाई की गूँज ने दी थी ये इत्तला
आज तुम्हें मिल गया
तेरा हमनशीं , तेरा हमनवा .
जिंदगी की रस्में भी कुछ अजीब हैं
चलना तो था हमें साथ साथ
पर बैठे थे जुदा - जुदा हम उस रात
ना था हमें पता कि
जिंदगी ने लिया था क्या फ़ैसला
जिंदगी की रवानगी में
ये क्या मुझे हुआ
क्यों काँप उठी थी मेरी वफा
पर तभी मुझे तुमने था थाम लिया
इश्क ने हमारे रुप था लिया नया
जहाँ फ़कत हम थे और थीं हमारी वफा
ये इश्क की है ऐसी दास्तां .
जहाँ आगाज का तो हुआ पता
अंजाम भी होगा वल्लाह - वल्लाह
बिसमिल्लाह - बिसमिल्लाह .
@ Ajha . 23. 02. 16
Monday, 29 February 2016
मेरे हमसफ़र , मेरे हमनवा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment