Wednesday, 9 March 2016

हिचकियां . . .

हिचकियां आईं थीं मुझको
हाँ , शायद वो फ़िर मुझको याद आया .
कहा करता था मुझसे , अब क्या लिखूं मैं कविता
कल्पना में मेरी जो थीं बसती, वो मुझे था मिल गया
मेरा औचित्य तुम्हीं हो
मेरा जीवन आधार तुम्हीं
तुम्ही वो धूरी जिस पर कर रहा परिक्रमा
नहीँ कुछ मुझको समझ आता
ये ज़िंदगी भली या वो जो थी मृग तृष्णा
आज मेरी ज़िंदगी के मायने बदल गये
कहता जो वो कलतक वो मुझ से था
वही आज हो गई जीवन का  मेरे  हिस्सा
कलतक जब ना था वो पास मेरे
ना थी मेरी ये कविता
आज जब है दूर वो मुझसे
जीवन मेरी बन गई है कविता
लोगों से अब पूछती फिरूँ _
क्यों जुदाई का सबब है ऐसा
सारी दुनियाँ हो जाती है एक तरफ़
इक वैरागी ही क्यों रह जाता तन्हा
ऐ दुनियाँवालों क्यों है इश्क- o- इंसानियत से गुरेज
इक बार कभी हँस के , मुस्कुरा के तो देख
इतने दुखों का सरमाया लेकर क्या जाना
रोते हुए आये थे , हँसते हुए ही है जाना . @ Ajha . 09. 03. 16

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