आज का समाज इतना जागरूक हो चला है कि इसकी पैनी नज़र लोगों के हर पहलू पर होती है.सोशल मीडिया का योगदान भी इसमें कम नहीं. आज चाहे आप जिस भी विषय पर राय शुमारी कराना चाहे, मुख पोथी पर पोस्ट करें और संतोषजनक परिणाम की आशा अल्पावधि में भी पा सकते हैँ. आज हमारा साहित्य जगत जिन उचाईयों को देख रहा है, वह भी सोशल मीडिया के वाइरल से अछूता नहीं. अब सभागारों और बंद कमरों गोष्ठियों और सेमिनारों के साथ मुख पोथियों पर भी साहित्य चर्चाएं हो रही है. इसमें होने वाले बदलावों पर भी अनेकों प्रकार से अनुभव साँझा किये जा रहे हैँ. ऐसी ही एक चर्चा का विषय " क्या साहित्य और खासकर कविता लेखन में डिग्री प्राप्त करना अनिवार्य है? "
हालांकि मैं इस विषय की विशेषज्ञ तो नहीं पर बहुत कुछ अनुभव भी सीखा जाती है या यूँ कहिये कि परिपक्वता भी व्यक्ति में एक मत कायम करते रहती है, और इसी आधार पर मेरी भी सोच है.जहाँ तक मुझे लगता है साहित्य और कला (चाहे कोई भी विधा हो) एक प्रकृति प्रदत्त वह हुनर है जो हम में जन्म के साथ ही होती है. आवश्यकता उसके तलाशने और तराशने की होती है. जैसा आप तराशेंगे वैसा ही उसमें निखार पाएंगे, और मैं समझती हूँ की इसके लिए किसी डिग्री की नहीं अपितु खुद को उस विधा में लगन के साथ झोंक देने की आवश्यकता होती है.
जहाँ तक डिग्री का सवाल है वह विषय के तराशने नहीं अपितु संवारने के लिए आवश्यक है जिसे हम शोध कहते है. किसी भी साहित्यकार चाहे वो कवि हो या और कुछ ,वह अपने अंतर्मन को मूर्त रूप देता है और उसके लिए इसकी गुणवत्ता का बखान करना कठिन होता है. ये शोधकर्ता होते हैं जो अपनी विद्वता के अनुसार काल, देश, और श्रेणी में वर्गीकृत करते हैँ. एक कलाकार या साहित्यकार अपनी कल्पना और अनुभव को जीता है और जो कुछ भी उससे शब्दों अथवा अन्य मूर्त माध्यम से दृष्टिगत होते है ,वह ,उसे ठीक उसी प्रकार से प्रिय होता है जैसे एक पिता या माता से यह बता पाना कि उसका कौन सा संतान उसे सर्वाधिक प्रिय है.
अतः इन बातों को ध्यान में रखते हुए यह बहुत आवश्यक है कि नवोदित सृजनात्मक प्रतिभा को हमेशा खुले दिल से और आवश्यकता अनुसार समालोचना से उत्साहित और प्रेरित किया जाय.@Ajha.
Thursday, 21 July 2016
क्या साहित्य महारथ होने के लिए डिग्री की आवश्यकता है
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