समझाने कि अदा क्या भाई
वो रुठने का शौक फ़रमा रहे
कई दफ़े हँसाया था मैंने,पर
ना समझने की कसम खा रहे
बताया भी ना आने का सबब
मज़बूरी को बहाने बता रहे
बहुत मुमकिन था मान जाना उनका
पर बैठ किनारे तूफां का नज़ारा कर रहे
अब ना होगा मुझसे ये रुठने-मनाने का खेल
मेहरबानियों पे उनके हम जिए जा रहे हैं
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