Monday, 18 July 2016

साहित्य : कब और कैसे

        मानव मस्तिष्क एक ऐसे सोच का कीड़ा है जो हमेशा कल्पनाशील और सृजनात्मकता की खोज में रहता है. हर नई सोच को पुरानी सोच में मिला, गुण- अवगुण की समालोचना करते हुए ना जाने कब एक नई सोच का सृजन कर लेता है जो तात्कालिक समाज में परिलक्षित होते रहता है.
          साहित्यिक सृजन का इतिहास भी कुछ ऐसा ही रहा है.पहले  चित्रात्मक अभिव्यक्ति और फिर शब्दात्मक अभिव्यक्ति_यह शुरुआत थी साहित्यिक उद्गम का, जिसे हम इतिहास, कला, संस्कृति और समाज का लिखित प्रमाण मानते हैं.
              जैसे-जैसे समाज का विकास होता गया कालान्तर में काल विभक्ति भी इसी प्रकार से होने लगी और साहित्य पर पड़ने वाले प्रभाव को भी इसी आधार पर वर्गीकृत किया गया. आदि काल से वैदिक काल तक समाज प्रकृति का उपासक था और तब का साहित्य भी इसी विषय पर आधारित था, भाषा संस्कृत. परंतु उत्तर वैदिक काल अंध विश्वास, कर्मकाण्डो से प्रभावित होने लगे , आम जनजीवन एक नए जीवन सूत्र के तलाश में थी.और इसी तलाश का नतीजा जैन, बौद्ध धर्म और अनेकों माध्यम मार्गीय   व्यवस्था के पनपने से साहित्य पर भी प्रभाव हुआ .संस्कृत भाषा टूट कर पाली,अपभ्रंश हो गई और इसी भाषा में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के  ध्यान में रख साहित्य लेखन करने लगे.
                मध्यकालीन भारत ,जिसमें खास कर मुग़लों का खासा प्रभाव देखा गया. इस काल में दो भाषाओं का जन्म हुआ .अपभ्रंश भी टूटी . अब खड़ी बोली ,जिसने बाद में हिंदी का रूप लिया और उर्दू भाषा.उर्दू  'उर्द' शब्द जिसका अर्थ तम्बू है और तम्बुओं में रहने वाले मुग़ल और यहां के स्थानीय निवासी में संपर्क बनाने के लिए थोड़ा फ़ारसी और थोड़ा खड़ी बोली मिला कर जो बोली गई वही आगे चलकर  उर्दू जबान हो गई. इस काल ने दरबारी साहित्य देखा जहाँ राजा के प्रशंसा में कसीदे पढ़े गए तो कई साहित्य इतिहास के रूप में दिखे और जो महत्वपूर्ण दिखा वो था सूफी साहित्य.
                अंग्रेजों की गुलामी झेलते समाज ने कई साहित्यिक आयाम जोड़े.देशभक्ति विषय को समझाने के लिए अनेकों विदेशी साहित्यों का अनुवाद एवं प्रभाव दिख पड़ा. साथ ही लोगों में जागरूकता लाने के लिए पहली बार अपने पुराने संस्कृति एवं धर्मग्रंथो का गुणगान हुआ. इससे पूर्व के  इतिहास में इन बातों पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया.
                     अगर समसामयिक साहित्यों की बात करें तो स्वतन्त्रता के पश्चात रूस की भारत से प्रगाढ़ मैत्री से उनके कई सिद्धान्तों का असर हमारे साहित्य में मिलता है और जिसमें मार्क्सवादी विचारधारा प्रमुख है.
                     शनैः शनैः बाज़ारवाद के बढ़ते कदम ने लोगों में साहित्य के प्रति एक उदासीनता भर दी और इस कारण यह सेमिनार एवम् गोष्ठियों का विषय बन बंद कमरों एवं कुछ लोगों तक सिमट कर रह गया.
                  आज सोशल मीडिया का योगदान ऐसा प्रभावी माध्यम हो चला है जिसके जाल से बच पाना असंभव है. यहाँ समाज की इच्छा-अनिच्छा की प्रमुखता नहीं बल्कि विषय कुछ भी हो इसे रुचिकर, रोमांचकारी और आकर्षक बना लोगों की नज़रों तक ऐसे पहुँचा दिया जाता है कि  लोग अपनी भावना एवं सहभागिता जाने अनजाने में प्रकट कर जाते हैं और इसी से प्रभावित है हमारा आज का साहित्य जो सम्प्रति लोकप्रियता की ऊंचाईयों को छू रहा है. मुझे लगता है कि अभिव्यक्ति की जितनी आज स्वतन्त्रता है इस कारण साहित्यिक क्षेत्र विविधताओं से भरा है.ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय समाज जिस लोकतंत्र को जी रहा है ,वह देश और दुनिया के लिए एक उदाहरण और हमारा साहित्य उसकी एक मिसाल है.@Ajha,.18.07.16
         
               

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