"करीबी"
कितने शर्मीले से थे तुम...
कभी अपनें मन की कुछ कह नहीं पाते.आरम्भ में मैं भी बड़ी हैरां परेशान रहती कि भला ये आदमी कैसा है,क्या इसमें अपनी चीजों को रखने का सलीका नहीं?
जब देखो कुछ ना कुछ ढूंढते रहता है, और फिर उसे पता भी नही कि आखिर वह ढूंढ क्या रहा है....मेरा तुम्हारे नज़र से ओझल होना तुझे एक पल के लिए भी मंजूर नही होता...पर ये बातें मुझे पता भी कैसे चलती....मैं तो मन ही मन खीझती रहती ...कैसी ये क्या ज़िंदगी है!...मुझे तो एकांत में अपने आप से बातें करते हुए बड़ा आनंद आता.कभी हरियाली देख ,कभी पक्षियों का आपसी संवाद को समझने की कोशिश करना ,कभी क्षितिज को दूर तक निहारना और उनमें अनेकों अक्स ढूंढना,प्रकृति में खुद को तलाशना_यही तो मेरी ज़िंदगी थी,जिससे मैं हमेशा खुद को जुड़ा महसूस करती थी. तुम्हारा मेरे जीवन में आना ....जैसे कोई नई पहेली ने जन्म ले लिया हो और उसे मुझे पूरे जीवन समझना होगा ....क्या ये सम्भव होगा...क्या मैं जीवन के इस पहेली को सुलझा पाऊंगी....!
आज तुम्हारे साथ इतने साल रहते गुज़रे और वो अनजानी पहेली अब मेरी बेहद खूबसूरत सहेली बन गई.अब मैं तुम्हारे मन की बातें पढ़ पाती हूँ, तुम्हारे बिना बोले उन एहसासों को समझ पाती हूं ,अब शायद इतने अल्फ़ाज़ों की जरूरत भी नही....साकित मन तुम्हारे चंचल मन को समझ चुका है.पर हाँ, तुम बहुत कुछ तो बदल गए परन्तु एक बात जो नही बदली .....यह समझ पाने में तुम अब भी धोखा खा जाते हो कि मैं तुम्हारे मन की बिन कहे समझ पाई या नही .ऐसी परिस्थिति में तुम्हारी बेचैनी और खीझन को चुपचाप आनन्दमगन निहारती रहती हूं.और फिर से वही तुम्हारा वो शर्माना....कमाल!
दूरियों को नापते हुए आज हम कितने करीब हो गए......
@Ajha.20.06.17
Thursday, 22 June 2017
करीबी
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