Thursday, 29 June 2017

परवाज़

"परवाज़"

बातों से निकली जो बात
खुल रहे है अब परत दर परत राज़
बचपन में रंग बिरंगी तितलियों की
उड़ान के पीछे भागना
पंछियों के झुंड में शामिल हो
सोच हवाबाज़ीयों का
ख़यालों के वो पुष्पक विमान
मस्तिष्क पटल पर हमेशा निहारना
डोर संग पतंग ये दृश्य विहंगम
मन बावरा हुआ जाता
उड़ानों में थी आकर्षण ऐसे
ऊंचाइयों को छूने की कोशिशों में
मन प्राण एक हो गये हो जैसे
वही उड़ान जो बचपन में
उड़ती तितलियों को पकड़ने से
आगाज़ हो ,अब मंजिल बन गई
उम्र के अनेकों पड़ाव को छू
जिंदगी की परवाज़ बन गई.
Aparna jha
30.06.17

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