Wednesday, 28 March 2018

तुम लिखते तो..

"तुम लिखते कहानी..."
(एक सूफी ख़याल)

बात जो छेड़ी है तुमने
कि लिखते तो क्या लिखते
कहानी जो रही अधूरी
उन पर अपनी छाप क्या लिखते

तो सुन लो आज मुझ से
कहानी जो लगती है
अधूरी ही तुम्हें दिखती
शायद इन नज़रों से
देखा नही मैंने कभी

तो सुन लो आज मुझ से
जिसे मुहब्बत मान बैठे
वो मुहब्बत मेरे लिए
थी ही नही कभी

तुम तो मुहब्बत में बंध गए
और कैदियों-से सोचने लगे
क्या मुहब्बत घड़ी की सुइयां हैं
या रात और दिन का खयाल
या बदलते मौसम की निशानदेही
या समुद्रतट पर बैठे संग रहना
या पहाड़ों पर हो खड़े
पर्वतश्रृंखला ढूंढना

तो आज सुन लो मुझ से भी
जो कहानी तुझे अधूरी सी लगी
और नज़रों में तेरे खटकने लगी
वो कहानी तो मेरी जिंदगी है
वो तो मेरे जीने का ढाल है
वही मेरे उस मंज़िल तक
पहुंचने का रास्ता भी

ये अधूरी कहानी बेशक
तुझे पूरी ना लगे
वो जो अधूरा तुझे है दिखने लगे
वही तो मेरे जीवन का मर्म है
वही तो मेरे जीवन का धर्म है
वही तो तर्क मेरा
वही संगत मेरी
वही है रूह मेरी

वो जो अधूरा सा तुझे दिखता है
वो मेरी पाकीजगी का हिस्सा है
वो जो अधूरा सा अब लगे
वो मेरी मोहब्बत का नशा है
वही मेरी मोहब्बत की रवानगी है
वही मेरी मोहब्बत की दीवानगी है
वही मेरा मंदिर,खुदा भी
वही मैखाना
वही मर्ज़े इलाज

ये मेरी मोहब्बत की पाकीजगी ही
ना ख्वाहिश इंसानी रिश्तों
और जज़्बात की कभी
ना मुझे दर-बा-दर खुदा की तलाश
ना किसी से कैसे,कोई का
सवाल ओ जवाब
वो दुनिया ये दुनिया
ये ज़मीन वो आसमान
मेरी जन्नत भी यही
जहन्नुम कहीं नहीं

अब कहो किस अधूरी कहानी
की बात करते हो
तुम नहीं जानते कि
मेरा प्रेम मुझसे
अपनी अपूर्णता में पूर्णता देखता है
और पूर्णता को अपूर्ण मान
अपनी जीवन को नित्य
संवारता है.
Aparna Jha

Tuesday, 27 March 2018

ट्रेनक ओ यात्रा (मैथिली में)

"ट्रेनक ओ यात्रा..."
(मैथिली में)

"गार्गी सखि अहाँ एत्तs! एत्तेक समानक संग, बुझाईया कत्तहु दूरक यात्रा पर छलहुँ."
"अरे कामख्या सखि अहाँ! की हाल,हम ता घबराए गेलहुँ.अहूँ ता बुझाइया कत्तहु जाय लेल छी."
"हँs सखि,कनि पटना कॉलेजक किछु काज से जा रहल छी. आ देखियो ने एत्तs आबि के ज्ञात भेल जे ट्रेन दू घंटा लेट से चलि रहल अछि.कोहुना समय ता काटय पड़तै."
"अहाँ उदास कीया भेलहुँ,ईश्वर चाहलैथ तैं एत्तेक दिन बाद एत्तs भेट भेल.चलू अपना सब कनि मोनक गप्प करी. समय ता तुरत कटि जायत."
"ठीके कहलहुँ सखि हमरो अहि में ईश्वरे के किछु प्रयोजन बुझा रहल अछि.चलू ओहि बेंच पर बैसी."दुनू सखि हँसैत-बाजैथ ओ बेंच पर जा बैसली.
कामख्या कनि हंसी करैत कहलीह_गप्प ता आरो हेतै मुदा हमरा ई बताओ जे ट्रेन से उतरै के पश्चातो अहाँ ओहि ट्रेन के आ बादो तक ओहि पटरी के अनन्त तक निहारि रहल छलिये... की कोनो खास बात."
"नहि सखि कोनो बात नहि".धकचुकैते गार्गी कहली.
"नहि सखि हमरा ता ओ वला बात बुझाइत अछि_'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी..."
"नहि मानब अहाँ बिन बुझने... अहाँ ठीके बुझलहुँ. हम अप्पन कल्पना में डूबल छलहुँ.गत सांझ ,राति आ भोर चंद्रेशक बजलाहा सब गप्प मस्तिष्क पटल पर ओहिना नाचि रहल.हम्मर दुनू के कात दिसन के उप्पर आ निच्चा वाला सीट छल. ओ दिल्ली के कोनो कॉलेजक विद्यार्थी छल.नहि जानि जेठ बहिनक एहेन कोन गुण हमरा में देखल जे दीदी-दीदी कही मायक हाथक रोटी सा लs बहिनक विवाह आ कालेज प्रकरण सब सुनेने गेल. ना चाय ना भोजन के कोनो तकलीफ होम s देलक.राति सूतs लेल ता गेल मुदा फेर आपस हमरा सीट पर बैसी जगा देलक..."दीदी घर जा के सूति रहब".अप्पन फोन नम्बर पकड़ाबैत कहलक_"दीदी बिसैर ता नै जायब हमरा?"आय भोरे जखन हमर स्टेशन आयल ता सबटा समान अपने हाथे उतारि नम आँखि से गोर लागलक आ चुपचाप वापस ट्रेन में चढ़ि गेल. तखन सs हम चंद्रेशक  छवि के ट्रेनक पटरी के अनन्त में ताकि रहल छी कि भरिसक कोनो छवि बनि उभरि आबय..."
"सखि की आकस्मिक बनल एहेन संबंध के कोनो भविष्य होइतो अछि वा नहि...?"अचानक वातावरण में शांति पसरि गेल. तखने पाछु से कोनो ट्रेनक सीटी के आवाज भेल.ओ ट्रेन अप्पन गंतव्य लेल प्रस्थान कs रहल छल.सामने वला सीट पर बैसल व्यक्ति अप्पन मोबाइल पर गीत सुनी रहल छल जकर पाँति  हल्का-हल्का  सखि सब के सेहो सुनाई दs रहल छल_"नेहक डोरी कोना बंधतै... गाम तोहर बड़ दूर बटोही.."
अपर्णा झा

*(हिंदी में लिखल हमर एकटा लघुकथा के मैथिली में अनुवाद.मैथिली में कनि कमजोर छी, भाषा आ शब्दक एकटा मर्म होइत अछि, तकर शायद कमी बुझायत ताहि लेल माफी माँगैत छी आ सुधारक उम्मीद करैत छी)

ट्रेन का वो सफर

ट्रेन का वो सफर
('अपेक्षित पृष्ठ' के अंतर्गत)

"अरे गार्गी कहां से आ रही हो! और अब तो वो ट्रेन भी आंखों से ओझल हो चुकी है ,तो फिर किसे निहार रही हो?"
"अरे हाँ कामाख्या! कैसी हो?यहाँ...कहीं जाना है क्या?"
"हाँ गार्गी, मुझे पटना जाना है कॉलेज से कुछ सर्टिफिकेट की कॉपी निकलवानी है.बस ट्रैन के इन्तिज़ार में हूँ जो कि 2 घंटे लेट से चल रही है."
"चलो कामख्या तो आज 2 घंटे दोनों सखियाँ कुछ बतिया लें."
"अच्छा पहले ये तो बताओ गार्गी....किसके खयालों में पटरियों को दूर तक निहारे जा रही थी...."
"अरे नहीं रे...बस यूं ही..."
"नहीं-नहीं,यूँ ही वाली तो बात नहीं लगती.…ये तो  लगता है जैसे "बात निकलेगी दूर तलक जाएगी..." वाली बात जान पड़ती है कामख्या!"
"तुम ऐसे ही नहीं मानोगी, चलो बता ही देती हूं.मैं जब ट्रेन से उतर रही थी तो बीते शाम से लेकर रात और सुबह तक चंद्रेश से हुई बातें याद आने लगी.मेरे से हालांकि उम्र में छोटा था,कालेज का विद्यार्थी ठहरा  और दीदी कहकर ही पुकार रहा था.अपने माँ के हाथों की रोटी,तो बहन की शादी के किस्से और अपनी जीविका को चलाने हेतु विद्यार्थी होकर भी कैसे संघर्षरत रहना...शाम की चाय उसने मुझे ला कर दी, रात में भी खाने और सोने की व्यवस्था करता ऊपर अपनी बर्थ पर सोने चला गया."
"कामख्या उसे मुझमें दीदी के ऐसे कौन से गुण दिखाई दिए कि जैसे ही वह सोने गया था वापस फिर से मेरी बर्थ पर आ बैठा."दीदी क्या सच में आप सो गईं.... छोड़िए ना....सुबह तो फिर आप चली ही जायेगा.पहले तो मेरा फोन नम्बर लें...आप मुझे फोन तो करेंगी ना...."
"कामख्या आज जब स्टेशन पर मेरे सामान को उतारते उसने नम आंखों से पांव छुए और फिर अपने गंतव्य के लिए वापिस ट्रेन से मुझे देखता रहा...वह जो तुम मुझे दूर तक पटरियों को निहारते देख रही थी ना... मैं उस अनन्त में उसकी छवि तलाशने लगी थी कि शायद फिर से उभर आये...."
"कामाख्या  ऐसे रिश्ते भविष्य में कभी जुड़ भी पाते हैं क्या???" अचानक से दोनों के बीच एक चुप्पी सी....तभी फिर से स्टेशन से किसी ट्रेन के छूटने की सीटी सुनाई दी.पास की सीट पर बैठे मुसाफिर के मोबाइल से हल्की-हल्की गीत की आवाज़ सुनाई देने लगी_"चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था...."
अपर्णा झा

Sunday, 25 March 2018

मेरा ध्येय,मेरा श्रेय

"मेरा ध्येय,मेरा श्रेय"

मैं नहीं जानती कि 'रचना सृजन ' किसी का व्यक्तिगत मामला होता है या परिवेश/आनुवंशिकी असर .मेरे मामले में अगर मैं सोचूं तो मुझे लगता है कि मुझे दूर दूर तक सपनों में भी खयाल नहीं हुआ कि मैं कभी कुछ लिखने लगूंगी.(हांलाकि विद्यार्थी जीवन में फ़ारसी साहित्य की छात्रा तो रही).
बचपन में साहित्यिक माहौल और बाबूजी का रक्षा विभाग में कार्यरत होना नित्य एक किस्से को जन्म दे ही दिया करती.फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते गए, लगा कि समाज जिसे आजतक कभी समझे नहीं थे, अचानक सिमट कर हमारे सामने आ खड़ा हुआ कभी इसकी सूरत अच्छी भी लगी और कभी बुरी भी.और इन्हीं सामाजिक ताने बाने ने जिम्मेदारी और तुलनात्मकता का  बोध कराया.जब मैंने कत्थक नृत्य की तालीम लेनी शुरू की...आवाज़ें उठने लगी."ब्राह्मण की बेटी कहीं नृत्य करे!इससे अच्छा था कि गाना सीखती..." परन्तु मैं जानती हूं कि यदि गाना भी सीखती तो ये नहीं तो कुछ और कहा जाता. फारसी पढ़ने लगी तो उसमें 10 सवाल.…JNU में पढ़ी तो कुछ और...ये सब तबतक कि जबतक कि विवाह ना हुआ.नौकरी करने लगी तो माँ को होता था कि बेटी की शादी कब हो जाय जो लोग ये ना कहे कि बेटी की कमाई...कभी कोई ऐसी बात जो नागवार गुजरी और आवाज़ उठा दिया तो महत्वाकांक्षा का नाम...
विवाह के बाद नौकरी छोड़ी तो 10 बात...घर बैठ गई और  बेटा की समझदारी बढ़ते हुए माँ से उम्मीद कि कुछ करे...बाहरी दुनिया,घर की दुनिया, फ़ारसी साहित्य की विद्यार्थी जिसने ना जाने कब मुझे सूफी बना दिया.
जब मैं नौकरी छोड़ वैवाहिक जीवन में प्रवेश कर रही थी तो मेरे कार्यक्षेत्र के डायरेक्टर साहिबा जो खुद में शिखर पर पहुंची विदुषी हैं ,उन्होंने मुझसे कहा था कि "अपर्णा चाहे घर पर ही क्यों ना बैठो लिखती रहना.तब भी मुझे समझ  नहीं आया कि आखिर वो ऐसा क्यों कहा रहीं हैं.मैन तो बस इतना ही किया था कि तब जबकि मैडम खुद की कोई किताब लिख रहीं थीं और मुझसे उन्होंने पूरे भारतीय इतिहास में जो आक्रान्ताओं के समाज में विलय होने से  समाज और संस्कृति में सृजन को देखा गया उसे लिखने हेतु कहा था.एक बार उन्होंने बेगम नूरजहाँ द्वारा लिखित कुछ अशआर भी मंगवाए थे.इसके अलावा वहां प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन और बालश्री प्रतियोगिताएं भी हुआ करती थीं.मेरा भगवान जानता है कि इन सबों में मेरा शोध मात्र मेरे कार्यक्षेत्र में आता था.सभी दिग्गज लोगों से मुलाकात होती थी,फिर भी मैं यह कभी नहीं सोच पाई कि मुझे कुछ लिखना चाहिये.
खैर, मुखपोथी से चार साल पहले जब परिचय हुआ तो cut paste की दुनिया से थोड़े ही दिनों में उबने लगी, सोचा क्यों ना खुदकी लिखूं.विवाह के 15 साल बाद वो समय जब गृहस्थी में ही खुद को देखती रही, जब मैं बाकी सब बातों को भूलने लगी,भाषा मेरे अख्तियार से बाहर हो गया जान पड़ता था.व्याकरण की तो बात ही नही कोई..
ऐसा लगता था कि अब मैं ना साहित्य जानती हूं और नाहि बाहरी दुनिया से कोई सरोकार ही...
जब मैंने लिखने की ठानी तो हर वो बातें बाधा बन मुंह चिढाने लगी कि जैसे भी हो हतोत्साहित हो मैं लिखना बन्द कर दूँ. परन्तु ऐसे में  माँ-बाबूजी, विशेषकर माँ का मेरे माथे पर हाथ रहा.पतिदेव अपने पत्नीप्रेम और साहित्य में कम रुचि होने की वजह से हमेशा इस बात से डरते रहे कि कोई सड़ा अंडा मेरे मोबाइल या लैप टॉप के अंदर से ही ना दे फेंक मारे.कहीं शोहरत की आड़ में घर-परिवार ना छूट जाए /टूट जाए.ऐसे में अपने आप को, घर और लेखन में संतुलित कर पाना मानो एक संघर्ष को जीना.और हां जब मैंने लिखना आरम्भ किया तो आत्मविश्वास की कमी हर एक शब्द शब्दकोश की तरफ जाती.अर्थ और भाव को समझना और फिर पर्यायवाची शब्दों को झांकना मानो मेरे लिये एक तपस्या से कम नहीं रहा.(और इस तपस्या को आज भी जिये जा रही हूं)ना खाने की सुध ना नहाने की सुध बस मानो शब्द ही मेरे लिए सब कुछ.और इन सब के बीच एक नए जीवन को जीती मैं...जहां मैं कह सकूँ कि मैंने अपने जीवन को व्यर्थ नहीं गंवाया.आज भी ऐसा लगता है जितना भी पढ़ पाती हूँ वह कम है...साहित्य के समंदर ने मुझे एकलव्य बना दिया है और अपने इस एकलव्यता में मैं खुद के अस्तित्व को देखती हूँ और संतुष्ट भी हूँ.पहचान बनाना,मशहूर होना ये मेरे प्रकृति में नहीं.बस खुद की लिखती हूँ. कभी प्रेम,कभी जमाने से शिकायत तो कभी ऊपरवाले से लड़ते-झगड़ती हूँ... बस और बस अपने मन की लिखती हूँ. मेरे लिए ये वो जहां है जिसका की ना कोई आशकार, तलबगार है ना कोई राज़दार है नाहि कोई हुस्न-इश्क़ की बातें ही जो शक हो और डर हो ज़माने का...
लिखती हूँ मन की मन से.
अपर्णा झा

बुतपरस्ती

Wednesday, 21 March 2018

बिस्मिल्लाह खान

आज उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की 102 वीं जन्मतिथि पर ना जाने क्यों मांझी की बातें याद करने का मन हो रहा है . जहाँ तक मुझे याद है , संगीत वाद्यों से मेरा परिचय शहनाई के  माध्यम से ही हुआ था . उन दिनों शायद संगीत concert में आम लोगों के जाने का प्रचलन ना हो , तो जब शादियाँ हुआ करती थी तो वहाँ  शुभ संदेश के लिये शहनाई  बजा करते थे . पता नहीँ कब और कैसे  मुझे अपने कुछ तार उन धुनों में जुड़े महसूस होने लगे थे. बड़े होने पर बाबूजी से इसका कारण पूछा तो थोड़ा रुंधे गले से बोले _ ये तुम्हें अच्छा लगता हो लड़की के बाप को नहीँ .ये बात थी शहनाई में और इसमें तिलिस्म पैदा करने वाला भला खाँ साहब के अलावा और कौन हो सकता था .
           मैं ने खाँ साहब के प्रोग्राम में शिरकत किया , तो यही पाया की उनके सुर को सुनने से ही बात पूरी नहीँ होती थी . उनका अपने शहनाई को इस नजाकत और नफासत से साफ करके उसे देखना , मानो शहनाई से आज्ञा मांग रहे हों कि क्या मैं बजा लूँ और इतना ही नहीँ धुन बजाते हुए बीच - बीच में रुककर  वाद्य की तरफ़ इस तरह निहारना की आप को कहीँ दर्द तो नहीँ हो रहा . और जब इन सबसे आश्वस्त हो जाते तो अपनी टोपी को थोड़ा तिरछी करते हुए , चेहरे पर एक निश्छल मुस्कान के साथ उनका पूर्वी धुन छेडना , माशाल्लह खुद को मैं खुशकिस्मत मानती हूँ कि ऐसे तिलिस्म की  मैं साक्षी रही . एक बार नहीँ बल्कि चार बार . मेरा मानना है कि जबतक ये कायनात रहेगी , तबतक आपका वजूद रहेगा . फ़िर भी आज क्यों ये कहने का दिल कर रहा है _ खाँ साहब , we miss you a lot .
Aparna jha.

मेरा पहला उपवास(संस्मरण)

"मेरा पहला उपवास"
(संस्मरण)
आज ऐसा विषय दिया गया है जिस पर सोचूं तो ना जाने कितनी हंसी आ जाती है.बचपन से कभी भूख सहने की आदत ना थी.खाना मिलने में तनिक भी देर हो जाय तो रोने लगती थी.तब आजकल का समय थोड़े ही ना था कि कटोरी ले मां  पीछे-पीछे भागें और  बच्चे ने खा भी लिया तो जैसे घरवालों पर एहसान...
हम चार बच्चे घर के और उसमें भी सबसे छोटी मैं....,कितना किसी को समझने की फुरसत...घर में संस्कार की मान्यता थी या कह लें फौज़ी रूल...खाना बिल्कुल समय पर,या फिर यूँ कि जबतक बाबूजी अन्न को हाथ ना लगाएं तो फिर बच्चों को भी खाने को नहीं मिलता और माँ तो सबसे आखिर में...जो बचा, नहीं बचा वो उसकी किस्मत...भूख तो तब और भी तेज़ लगती जब पर्व त्योहारों का खाना बनता . फिर छुट्टियों वाले दिन बाबूजी किसी ना किसी को आमंत्रित कर ही देते.हमें 'अतिथि देवो भवः' का पाठ जो पढ़ाना था.मत पूछिए खाने की खुश्बू और खाने में विलंब हमारी हालत को क्या कर देता...ना  टीवी था, ना और कोई साधन कि मन बहला लेते.खेलने के लिये भी शाम का समय सुनिश्चित….बस खाली नहीं बैठना,या तो पत्रिका पढ़ो या स्कूल की पढ़ाई.लगता था कि काश स्कूल ही खुला होता...कम से कम दोस्त ही साथ होते.काले पानी की सज़ा इससे बेहतर कि पता तो होता कि फलां जुर्म में सज़ायाफ्ता हुए हैं.
ख़ैर जैसे-जैसे बड़े होते गए सबों का अपने गंतव्य के आने जाने की कोई समय सीमा ना रही तो माँ को भी अपनी सोच में बदलाव लाना पड़ा,हांलाकि ये बदलाव उन पर आज भी लागू नहीं है.जबतक कि कोई सदस्य अभी कितनी भी देर तक लगे खाने को कह गया और वो अभी बाकी है, वह अभी घर पर नहीं है और आने की कह गया तो माँ तब भी इन्तिज़ार में भूखी रह जाती थी.मोबाइल और फोन का प्रचलन भी नहीं कि घरों में ये सेवा उपलब्ध हो.
फिर जितनी बार ऐसा होता कि रात ज्यादा होने से भैया होस्टल में ही रह जाता,इधर माँ इन्तिज़ार में भूखे सो जाती. मां का ये स्वभाव मुझे बिल्कुल नहीं भाता था.हमेशा मन ही मन मनाती की हे भगवान ! दुनिया की सभी माँ को इतनी भूख बढ़ा दो ताकि सबसे पहले उन्हीं को खाना पड़े,ताकि सारे नियमों को वह ताक पर रख दे और समझ पाए कि भूख लगना क्या होता है...और उपवास की तो वो दूर दूर तक ना सोच पाए.
खैर,अगर अपनी बात करूँ तो भूख तो बर्दाश्त था नहीं पर किसी भी तरह से मां को बहलाने की हमेशा कोशिश रहती.बड़े हुए तो भी कभी खाने के नाम पर भूखी नही रही,जिस दिन मां का व्रत रहता तो बाहर से ही कुछ खा कर आ जाना भी तय हो गया.उपवास तो कभी मैंने किया ही नहीं और भगवान के आगे नतमस्तक होना तो आया ही नहीं.परन्तु जब विवाह हुआ तो आये दिन कोई ना कोई पूजा और फिर उपवास का सिलसिला..
शायद वो  मेरे जीवन का पहला  वट सावित्री हो...मां ने व्रत ही कराया था और साथ ही शाम सात बजे के पहले पहले एक ग्लास दूध सामने रख कहते चली गईं_ये दूध पी लो...इसके बाद कुछ खाना पीना नहीं है...कितना गुस्सा आया था माँ पर...कमबख्त घड़ी की सुई भी आगे खिसकने में सौ साल लगा रही थी. मैंने जो सोच लिया तो सोच लिया.जैसे ही रात के बारह बजकर पांच मिनट हुआ कि चुपचाप किचन जाकर मैंने जो दिखा खा लिया कि अब तो वो दिन बीत गया और अगले दिन में प्रवेश कर चुके हैं.यकीन मानिये तब का दिन था और आज का दिन ऐसा कि जब सास या मां परेशान रहती है कि बच्चे पहले खा लो पर रोज दिन मेरा लगभग एक उपवास हो ही जाता है.कभी दिन के तीन भी बज जाते  है.कितनी दफे तो नवरात्रे भी पूरे फलाहार पर रह जाती रही.अब कुछ व्रत है जिसे मैं अब भी बिना परेशानी के कर जाती हूँ.लेकिन वो वट सावित्री वाली रात कभी नहीं भूलती , जो मेरा पहला उपवास का दिन था.
अपर्णा झा

किस ओर कदम शिक्षण संस्थानों का...?

"किस ओर कदम शिक्षण संस्थाओं का!!!"

एक समय था जब मैं JNU में पढ़ती थी और मेरी दीदी DU के north campus से philosphy में परास्नातक की विद्यार्थी थी.दिल्ली सरकार ने कुछ ऐसे नियम बनाये थे कि कुछ समय के लिये बस पास की शायद मान्यता रद्द कर दी थी या इसके बाबत कुछ नियमों में संशोधन कर दिए थे जो मुझे उतना याद नहीं आरहा.पर हाँ, कुछ ऐसी  बातें आईं कि DU वाले विद्यार्थी जो थोड़े सीधे-साढ़े थे वो अपनी पहचान पत्र दिखाकर बस में बैठ जाता थे और जो थोड़ा दादागिरी वाले होते वो कुछ शायद 'स्टूडेंट' कह जाते,और,अगर कंडक्टर ने हल्की सी भी आना-कानी की तो किसी एक कॉलेज का नाम व पता बता देते....फिर तो बस वाले कि हिम्मत कहां.ऐसे में जब हम दोनों बहनें एक साथ कहीं बस में जा रहे होते तो शिक्षण संस्थानों का अंतर बस टिकट लेने के समय ही स्पष्ट हो जाता.दीदी अपने पहचान पत्र को लहरा कर ही बैठ जाती और मुझे आंखे भी दिखाती कि खबरदार जो तुमने टिकट लिया.परन्तु ये मेरे सोच से बिल्कुल विपरीत की बात थी.एक अहं था कि 50 पैसे या एक रुपये के पीछे कुछ बेइज़्ज़ती ना सहनी पड़े.एक ऐसे यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली छात्रा ऐसा काम नहीं कर सकती.ये सोच शायद मुझमें ही ना हो बल्कि मेरे खयाल से वहां पढ़ने वाले सभी अपने इस अनुशासन में रहते थे.पढ़ने वाले अपनी पढ़ाई में व्यस्त उन्हें रात और दिन का पता नहीं होता था.नेतागिरी करनेवाले भी अपने क्षेत्र में अपना homework पूरा रखते थे.चाहे आप किसी पढ़ाकू के पास बैठ जाओ तो कितनी ही किताबों का सारतत्व एक ही विषय पर एक कप चाय और गंगा ढाबा के बहाने मिल जाता.और यही बात वहां की राजनीतिक जीवन व्यस्था में भी थी.election का मूड हो और GBM का सिलसिला हो, एक छात्र राजनीतिक मंच पर खुद को अंतरराष्ट्रीय,राष्ट्रीय,क्षेत्रिय और विश्विद्यालयी स्तर पर खुद में एक अखबार समेटे हुए होता था जिसे सुनने की इच्छा सबों में होती थी.
आज शिक्षण संस्थानों विशेषकर JNU जैसी जगहों की ये दशा और दिशा देखकर मन आहत होता है....
क्या अब भारतीय शिक्षण संस्थान विशेष कर JNU अपने बेहद ही गिरे स्तर से जानी जाएगी...इसका जिम्मेदार कौन...
शिक्षार्थी क्या वास्तव में अपनी पढ़ाई हेतु यहां आते हैं या कुछ और के लिये...और शिक्षकों की ये स्थिति!!!
क्या बच्चों की स्कूल के स्तर पर कोई खोट है जो कॉलेज के आजाद माहौल को पाकर अपनी शैतानियों को रूप देने लगते हैं या महाविद्यालय का माहौल ही अब ऐसा है...या इसमें राष्ट्रीय राजनीति का प्रभाव विद्यार्थियों को अपने सदमार्ग से भटकाता है...???
जो भी हो मन आहत है....चिंतित है कि हम अपने बच्चों को भविष्य के जिन हाथों को सुपुर्द कर रहे, वहां हमारा भविष्य सुरक्षित है भी या नही...!!!
अपर्णा झा

मेरी कविता (अंतरराष्ट्रीय कविता दिवस)

अंतराष्ट्रीय कविता दिवस
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"मेरी कविता"

जीवन का  उद्गम
जीवन का अंत
और इसके बीच एक काल चक्र

जीवन लंबा भी
जीवन कभी छोटा भी
और तय हुआ जाता एक सफ़र

जीवन एक सपना भी
कभी तमन्ना भी
और इसी उम्मीद में तय होती जिंदगी

जीवन एक ध्येय भी
जीवन एक श्रेय भी
और इसी को पूरा करती हुइ एक उम्र

जीवन कभी टूटता भी
जीवन कभी बिखरता भी
और इसी तोड़ – जोड़ में बीता पल

जीवन शब्दों का सागर
भावनाओं से भरा गागर
और यही है सब जमा पूँजी 

मेरी कविताएँ 
जो कुछ भी ना माँगे
बस इक अदद कोरा काग़ज़
जो मेरी सारी बातों को लिख जाये
अपर्णा झा 21.03.16
(कुछ पुरानी याद)

Tuesday, 6 March 2018

Setu --- �� --- सेतु: वस्त्रम यानि खादी: वस्त्र यानी खादी और अमीर खुसरो

Setu --- �� --- सेतु: वस्त्रम यानि खादी: वस्त्र यानी खादी और अमीर खुसरो: अपर्णा झा अपर्णा झा कपड़ा बुनने की कला यानी वस्त्रम् जिसे गांधी जी ने स्वतंत्रता के दौरान लोगों को एक नई पहचान से जोड़ा था और जिस विचार ...