Tuesday, 27 March 2018

ट्रेन का वो सफर

ट्रेन का वो सफर
('अपेक्षित पृष्ठ' के अंतर्गत)

"अरे गार्गी कहां से आ रही हो! और अब तो वो ट्रेन भी आंखों से ओझल हो चुकी है ,तो फिर किसे निहार रही हो?"
"अरे हाँ कामाख्या! कैसी हो?यहाँ...कहीं जाना है क्या?"
"हाँ गार्गी, मुझे पटना जाना है कॉलेज से कुछ सर्टिफिकेट की कॉपी निकलवानी है.बस ट्रैन के इन्तिज़ार में हूँ जो कि 2 घंटे लेट से चल रही है."
"चलो कामख्या तो आज 2 घंटे दोनों सखियाँ कुछ बतिया लें."
"अच्छा पहले ये तो बताओ गार्गी....किसके खयालों में पटरियों को दूर तक निहारे जा रही थी...."
"अरे नहीं रे...बस यूं ही..."
"नहीं-नहीं,यूँ ही वाली तो बात नहीं लगती.…ये तो  लगता है जैसे "बात निकलेगी दूर तलक जाएगी..." वाली बात जान पड़ती है कामख्या!"
"तुम ऐसे ही नहीं मानोगी, चलो बता ही देती हूं.मैं जब ट्रेन से उतर रही थी तो बीते शाम से लेकर रात और सुबह तक चंद्रेश से हुई बातें याद आने लगी.मेरे से हालांकि उम्र में छोटा था,कालेज का विद्यार्थी ठहरा  और दीदी कहकर ही पुकार रहा था.अपने माँ के हाथों की रोटी,तो बहन की शादी के किस्से और अपनी जीविका को चलाने हेतु विद्यार्थी होकर भी कैसे संघर्षरत रहना...शाम की चाय उसने मुझे ला कर दी, रात में भी खाने और सोने की व्यवस्था करता ऊपर अपनी बर्थ पर सोने चला गया."
"कामख्या उसे मुझमें दीदी के ऐसे कौन से गुण दिखाई दिए कि जैसे ही वह सोने गया था वापस फिर से मेरी बर्थ पर आ बैठा."दीदी क्या सच में आप सो गईं.... छोड़िए ना....सुबह तो फिर आप चली ही जायेगा.पहले तो मेरा फोन नम्बर लें...आप मुझे फोन तो करेंगी ना...."
"कामख्या आज जब स्टेशन पर मेरे सामान को उतारते उसने नम आंखों से पांव छुए और फिर अपने गंतव्य के लिए वापिस ट्रेन से मुझे देखता रहा...वह जो तुम मुझे दूर तक पटरियों को निहारते देख रही थी ना... मैं उस अनन्त में उसकी छवि तलाशने लगी थी कि शायद फिर से उभर आये...."
"कामाख्या  ऐसे रिश्ते भविष्य में कभी जुड़ भी पाते हैं क्या???" अचानक से दोनों के बीच एक चुप्पी सी....तभी फिर से स्टेशन से किसी ट्रेन के छूटने की सीटी सुनाई दी.पास की सीट पर बैठे मुसाफिर के मोबाइल से हल्की-हल्की गीत की आवाज़ सुनाई देने लगी_"चलते-चलते यूँ ही कोई मिल गया था...."
अपर्णा झा

No comments:

Post a Comment