"मेरा पहला उपवास"
(संस्मरण)
आज ऐसा विषय दिया गया है जिस पर सोचूं तो ना जाने कितनी हंसी आ जाती है.बचपन से कभी भूख सहने की आदत ना थी.खाना मिलने में तनिक भी देर हो जाय तो रोने लगती थी.तब आजकल का समय थोड़े ही ना था कि कटोरी ले मां पीछे-पीछे भागें और बच्चे ने खा भी लिया तो जैसे घरवालों पर एहसान...
हम चार बच्चे घर के और उसमें भी सबसे छोटी मैं....,कितना किसी को समझने की फुरसत...घर में संस्कार की मान्यता थी या कह लें फौज़ी रूल...खाना बिल्कुल समय पर,या फिर यूँ कि जबतक बाबूजी अन्न को हाथ ना लगाएं तो फिर बच्चों को भी खाने को नहीं मिलता और माँ तो सबसे आखिर में...जो बचा, नहीं बचा वो उसकी किस्मत...भूख तो तब और भी तेज़ लगती जब पर्व त्योहारों का खाना बनता . फिर छुट्टियों वाले दिन बाबूजी किसी ना किसी को आमंत्रित कर ही देते.हमें 'अतिथि देवो भवः' का पाठ जो पढ़ाना था.मत पूछिए खाने की खुश्बू और खाने में विलंब हमारी हालत को क्या कर देता...ना टीवी था, ना और कोई साधन कि मन बहला लेते.खेलने के लिये भी शाम का समय सुनिश्चित….बस खाली नहीं बैठना,या तो पत्रिका पढ़ो या स्कूल की पढ़ाई.लगता था कि काश स्कूल ही खुला होता...कम से कम दोस्त ही साथ होते.काले पानी की सज़ा इससे बेहतर कि पता तो होता कि फलां जुर्म में सज़ायाफ्ता हुए हैं.
ख़ैर जैसे-जैसे बड़े होते गए सबों का अपने गंतव्य के आने जाने की कोई समय सीमा ना रही तो माँ को भी अपनी सोच में बदलाव लाना पड़ा,हांलाकि ये बदलाव उन पर आज भी लागू नहीं है.जबतक कि कोई सदस्य अभी कितनी भी देर तक लगे खाने को कह गया और वो अभी बाकी है, वह अभी घर पर नहीं है और आने की कह गया तो माँ तब भी इन्तिज़ार में भूखी रह जाती थी.मोबाइल और फोन का प्रचलन भी नहीं कि घरों में ये सेवा उपलब्ध हो.
फिर जितनी बार ऐसा होता कि रात ज्यादा होने से भैया होस्टल में ही रह जाता,इधर माँ इन्तिज़ार में भूखे सो जाती. मां का ये स्वभाव मुझे बिल्कुल नहीं भाता था.हमेशा मन ही मन मनाती की हे भगवान ! दुनिया की सभी माँ को इतनी भूख बढ़ा दो ताकि सबसे पहले उन्हीं को खाना पड़े,ताकि सारे नियमों को वह ताक पर रख दे और समझ पाए कि भूख लगना क्या होता है...और उपवास की तो वो दूर दूर तक ना सोच पाए.
खैर,अगर अपनी बात करूँ तो भूख तो बर्दाश्त था नहीं पर किसी भी तरह से मां को बहलाने की हमेशा कोशिश रहती.बड़े हुए तो भी कभी खाने के नाम पर भूखी नही रही,जिस दिन मां का व्रत रहता तो बाहर से ही कुछ खा कर आ जाना भी तय हो गया.उपवास तो कभी मैंने किया ही नहीं और भगवान के आगे नतमस्तक होना तो आया ही नहीं.परन्तु जब विवाह हुआ तो आये दिन कोई ना कोई पूजा और फिर उपवास का सिलसिला..
शायद वो मेरे जीवन का पहला वट सावित्री हो...मां ने व्रत ही कराया था और साथ ही शाम सात बजे के पहले पहले एक ग्लास दूध सामने रख कहते चली गईं_ये दूध पी लो...इसके बाद कुछ खाना पीना नहीं है...कितना गुस्सा आया था माँ पर...कमबख्त घड़ी की सुई भी आगे खिसकने में सौ साल लगा रही थी. मैंने जो सोच लिया तो सोच लिया.जैसे ही रात के बारह बजकर पांच मिनट हुआ कि चुपचाप किचन जाकर मैंने जो दिखा खा लिया कि अब तो वो दिन बीत गया और अगले दिन में प्रवेश कर चुके हैं.यकीन मानिये तब का दिन था और आज का दिन ऐसा कि जब सास या मां परेशान रहती है कि बच्चे पहले खा लो पर रोज दिन मेरा लगभग एक उपवास हो ही जाता है.कभी दिन के तीन भी बज जाते है.कितनी दफे तो नवरात्रे भी पूरे फलाहार पर रह जाती रही.अब कुछ व्रत है जिसे मैं अब भी बिना परेशानी के कर जाती हूँ.लेकिन वो वट सावित्री वाली रात कभी नहीं भूलती , जो मेरा पहला उपवास का दिन था.
अपर्णा झा
Wednesday, 21 March 2018
मेरा पहला उपवास(संस्मरण)
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