"किस ओर कदम शिक्षण संस्थाओं का!!!"
एक समय था जब मैं JNU में पढ़ती थी और मेरी दीदी DU के north campus से philosphy में परास्नातक की विद्यार्थी थी.दिल्ली सरकार ने कुछ ऐसे नियम बनाये थे कि कुछ समय के लिये बस पास की शायद मान्यता रद्द कर दी थी या इसके बाबत कुछ नियमों में संशोधन कर दिए थे जो मुझे उतना याद नहीं आरहा.पर हाँ, कुछ ऐसी बातें आईं कि DU वाले विद्यार्थी जो थोड़े सीधे-साढ़े थे वो अपनी पहचान पत्र दिखाकर बस में बैठ जाता थे और जो थोड़ा दादागिरी वाले होते वो कुछ शायद 'स्टूडेंट' कह जाते,और,अगर कंडक्टर ने हल्की सी भी आना-कानी की तो किसी एक कॉलेज का नाम व पता बता देते....फिर तो बस वाले कि हिम्मत कहां.ऐसे में जब हम दोनों बहनें एक साथ कहीं बस में जा रहे होते तो शिक्षण संस्थानों का अंतर बस टिकट लेने के समय ही स्पष्ट हो जाता.दीदी अपने पहचान पत्र को लहरा कर ही बैठ जाती और मुझे आंखे भी दिखाती कि खबरदार जो तुमने टिकट लिया.परन्तु ये मेरे सोच से बिल्कुल विपरीत की बात थी.एक अहं था कि 50 पैसे या एक रुपये के पीछे कुछ बेइज़्ज़ती ना सहनी पड़े.एक ऐसे यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली छात्रा ऐसा काम नहीं कर सकती.ये सोच शायद मुझमें ही ना हो बल्कि मेरे खयाल से वहां पढ़ने वाले सभी अपने इस अनुशासन में रहते थे.पढ़ने वाले अपनी पढ़ाई में व्यस्त उन्हें रात और दिन का पता नहीं होता था.नेतागिरी करनेवाले भी अपने क्षेत्र में अपना homework पूरा रखते थे.चाहे आप किसी पढ़ाकू के पास बैठ जाओ तो कितनी ही किताबों का सारतत्व एक ही विषय पर एक कप चाय और गंगा ढाबा के बहाने मिल जाता.और यही बात वहां की राजनीतिक जीवन व्यस्था में भी थी.election का मूड हो और GBM का सिलसिला हो, एक छात्र राजनीतिक मंच पर खुद को अंतरराष्ट्रीय,राष्ट्रीय,क्षेत्रिय और विश्विद्यालयी स्तर पर खुद में एक अखबार समेटे हुए होता था जिसे सुनने की इच्छा सबों में होती थी.
आज शिक्षण संस्थानों विशेषकर JNU जैसी जगहों की ये दशा और दिशा देखकर मन आहत होता है....
क्या अब भारतीय शिक्षण संस्थान विशेष कर JNU अपने बेहद ही गिरे स्तर से जानी जाएगी...इसका जिम्मेदार कौन...
शिक्षार्थी क्या वास्तव में अपनी पढ़ाई हेतु यहां आते हैं या कुछ और के लिये...और शिक्षकों की ये स्थिति!!!
क्या बच्चों की स्कूल के स्तर पर कोई खोट है जो कॉलेज के आजाद माहौल को पाकर अपनी शैतानियों को रूप देने लगते हैं या महाविद्यालय का माहौल ही अब ऐसा है...या इसमें राष्ट्रीय राजनीति का प्रभाव विद्यार्थियों को अपने सदमार्ग से भटकाता है...???
जो भी हो मन आहत है....चिंतित है कि हम अपने बच्चों को भविष्य के जिन हाथों को सुपुर्द कर रहे, वहां हमारा भविष्य सुरक्षित है भी या नही...!!!
अपर्णा झा
No comments:
Post a Comment