Thursday, 21 June 2018

कलम और हुनर

"कलमऔर हुनर"
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कभी कलम ने मेरी नाफरमानी लिख दी
कभी हुनर ने मेरी गुमनामी लिख दी
खैर ख्वाह तो हैं दोनों ही मेरे
पर नज़रों की ये कैसी गुस्ताखी  कि
दरमियान इनके गलतफहमियां कर दी
दिखते तो दोनों एक से
पर एक ने बेवफाई लिख दी
और  एक बावफा हो गई
बदले तो थे अंदाज़ दोनों के
कोई खुश गुमा तो कोई बदगुमा
नुमाया हो चला
सूरत तो थे जुदा उनके
सीरत एक सी ही थी दिख रही
कोई ख्याल बन दिल में बस गया
कोई अलफ़ाज़ बन कागज़ पर उतर गया
कलम बारहा लिखता गया
गलतफहमियां बढ़ती गई
ये तो हुनर ही था
जो काँटों में दामन बचाते गए
पर क्या कहे हम इनपे
ना कमतर ना बेशतर कोई इनमें
हैं दोनों की महदुदियत ओ मखसुसिययत(importance                                                        individuality)
 होती इंतिहाई घड़ियों में ही इनसे
वाकिफियत.
@Ajha.27.10.16

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