"वो चूड़ियों वाला"
"बाबा क्यों बेचते हो चूड़ियाँ
इस उम्र में भी...
कहीं ऐसा तो नहीं,कोई
किस्सा आपकी पीछे है छूट गई"
मेरा तो यूँही मजे का अंदाज़ था
पर लगता था जैसे दिल का
कोई तार
उनका मैंने छेड़ दिया था...
बोले...आ बैठ सुनाऊं तुझे
एक कहानी
सोचो तो मेरी और नहीं तो
एक राजकुंवर की थी
जवानी में एक गुड़िया को
दिल दे बैठा
रोज रंग बिरंगी चूड़ियों से
उसकी कलाई था सजाता
चूड़ियों की खनक...
मानो हमारे लिये थी
सावन की आमदगी,या फिर
किसी पपीहे ने कोई
नई राग छेड़ दी या
दादुर कहीं नृत्य कर रहा
और इसी बहाने से अपनी प्रेयसी को
था वह रिझा रहा
दिन बढ़े, और हर बार एक नई
दहलीज को पार किये
पर छूटी ना कभी संग चूड़ियों की
मौसम चाहे कितने आये
उत्सव तो बस जाना उनकी
चूड़ियों के खनक से ही
अपने पर जब तक रही जीवन की
बाग-डोर
ना कम होने दी चूड़ियां और
ना कभी फीका हुआ रंग-रोग
आज आश्रित हूँ भविष्य के कांधो पर
नहीं चलता है अपना कोई ज़ोर
इस बुढ़ापे में हम दोनों को
कर दिया अलग
एक इधर है तो एक उधर
कहीं दूर अकेली बैठी है,वो मेरा
इन्तिज़ार कर रही है
आज उम्र की इस दहलीज़ पर
पैसों की चका-चौंध पर
कुछ भी नहीं मेरा बचा है
हम दोनों के प्यार को
अपनों ने ही फासला दे दिया है
एक तरफ वो,और दूसरी
तरफ़ हम हैं
चूड़ियां हैं,खरीदार है
और बाज़ार कहीं भी ना कम हैं
पर हम जैसे प्यार करने वालों को
यहाँ समझता कौन है
पैसों की नहीं मुझे कोई कमी है
चूड़ियों ही हैं मेरे सोच की साथी
संग दो वक्त का दे और फिर बिक जाती
चूड़ियाँ इस लिये बेचता हूँ, कि तुझ
जैसे बेटियों से थोड़ी देर ही सही
कुछ अपनी कह-सुन लेता हूँ
ना जाने फिर कब उससे मुलाक़ात हो
बस इसी बहाने से अपने
गम को भुला लेता हूँ
गम अपने भुला लेता हूँ
इतना सुनने में ही अपनी तो
हालत बुरी हुई थी,ना सोचा था
इन रंग बिरंगी चूड़ियों में भी
छिपी ऐसी कोई दास्तां होगी
सच ही तो था...
खरीदार ही तो थी मैं
तब से आज तलक सदमे में हूँ,
वाकई उस दिन से
सदमें में हूँ मैं.
अपर्णा झा
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