Saturday, 28 July 2018

अंगूठा

हे अंगूठे महाराज!
कब क्या तूँ किसको कह दे
होता नहीं अब तुझ पर विश्वास.
पहले युद्धक्षेत्र था और वीरता को ललकार
और जो हारे तो दिखा अंगूठा
किया हार को धिक्कार
नीचा दिखाना हो तो अंगूठा
हो जाता था ठेंगा
झूठ जरा भी बोले तो पड़ जाए
अंगूठे रूपी डंडा
शिक्षित देश हुआ जो, तो
अशिक्षितों की बैसाखी ये अंगूठा
देखो वक्त ने कैसा खाया
है अब पलटा...
अंग्रेजी का बोलबाला
आधुनिक बनने की है अभिलाषा
बात-बात पे शान जताना
होगा तब तुम्हें अंगूठा दिखलाना
अब तो मुखपोथी भी साहब
मांग रही अंगूठा
कोई बात यदि हो टालनी
मुस्कुरा कर दिखा दो अंगूठा
और बिगड़ी बात से
जान छुटा लो दिखा कर अंगूठा
बड़ा रहस्यमयी लगे मुझे अंगूठा
कभी-कभी तो शक यह हो जाये
शायद ये नहीं है अपना अंगूठा
कहाँ तो शिक्षा और तकनीक में
खुद प्रगतिशील समझते
पर सरकारी कागज हो या
कारोबारी दफ्तर
बॉयोमीट्रिक्स का नाम दे
वही पुराने युग का
'अंगूठा छाप' का परिचय
अब हम दे रहे.
अंगूठे का महत्व है कितना
ये शिक्षा ने हमें सिखाई
या वक्त ने  दिया हमें जब धोखा
तब बात समझ में ये आई.
अपर्णा झा

अधूरा

गैरों की नज़रों की परवाह ही क्यों
हम तो लाफानी लम्हों को जिया करते हैं
और इस तरह...
तुझे लम्हा दर लम्हा याद किया करते हैं
तूँ नहीं इस जगह तो क्या...
एक प्यार है, क्या खातिर इसके
जरूरी तो नहीं दुनयावी होना
जिस्मानी होना
तूँ आसमानों में है चाँद और
तारों की शक्ल लिये
मैं धरा बन तुझे निहारा करती
हो जाती जो गुफ्तगू जीभर
समेटे तेरी वो हर बात
दुनिया से किनारा करती
अंधेरी रातों में दिए के मानिंद
एक आस लिये जी जाती
और इसी बहाने से कि
ख्वाबों में भी तूँ आये जरूर
गहरी नींद मैं सो जाती..
अब बताओ तुम्ही...
है क्या मुझमें अब भी तेरी कमी
है अब भी क्या कोई बात अधूरी
तूँ ही तो है मेरे जीवन की धूरी
यही तो है मेरा जीवन
तुझ से ही है मेरी जिंदगी पूरी.
अपर्णा झा

असहिष्णु

इतनी निराशाओं के साथ  जिंदगी को जिया तो क्या जिया ???भ्रांतियों में जीना और फिर कहना कि माहौल खराब है...!!! जिन्होंने यह लिखा और उसे सामाजिक पटल पर रखा तब वह असुरक्षित नहीं हुए,उनकी जान किसी ने नहीं ली  तो फिर ऐसे लेखन से समाज को डराना कैसा!!!मैं समझती हूं देश को बदनाम करने की एक साजिश छोड़ और कुछ भी नहीं…
आप नाम से असुरक्षित हैं, जीना चाहते हैं तो जाकर उस स्त्री के जीवन चरित को जानिये जो अपने माँ-बाप को हंसता देखने के लिये सदैव अपनी आहुति देती रहती है,परिवार बनाने हेतु उसने खुद को भुला दिया और जब परिवार बना दिया तो बच्चे पूछते हैं कि तुम कौन? और फिर भी जीना नहीं छोड़ती,अपनी निराशा नहीं दिखाती, क्योंकि तब भी मां को अपने माँ और स्त्री होने का खयाल रहता है,वो जीना,हंसना और आशीर्वाद देना नहीं छोड़ती कि भले ही उसका जीवन खुद की आहुतियों में गुज़रा हो, पर इस ख़याल से की बच्चे उसके जीवन को देख उसके जीवन के बाद भी संस्कारवान हो जाएं तो भी उसका स्त्री जन्म सफल हो जाएगा.
हम कितने असहिष्णु हो चुके हैं कि छोटी-छोटी बातों पर उबाल खाने लगते हैं....!!!!
अपर्णा झा

*माफ़ कीजियेगा यहाँ अपवाद की बात को अलग रखा है.

मौसम,सगाई,शहनाई,जीवन

मौसम,सगाई,शहनाई
या कहूँ तीनों का जोड़ है जीवन
क्रांतिकारी यदि मन हो और
कुछ करने की उमंग हो
हर मौसम पतझड़ और
बसंत हो जाता है
सगाई 'लक्ष्य' से और
शहनाई बिगुल बन जाता है
हाँ एक मौसम हमने भी
देखा था ऐसा
हरीतिमा ही चहुँ दिशा दिख आई थी
समाज बदलने की जैसे
कोई शपथ ही हमने खाई थी
खून गर्म था, तूफानों से लड़ने का
जोश अटल था
झंडा अपना हम फहराएंगे
ऐसा विवाह हम रचाएंगे
क्या पता था
माँ-बाबूजी का पैगाम भी आना था
माया-मोह ने फिर से
मुँह चिढ़ाना था
बेटी अब समय बहुत हो चला है
अब तेरा बाप बूढ़ा हो गया है
तेरे हाथ भी पीले करने हैं
कर्तव्य ना रह जाए अधूरी
भगवान के घर भी जाना है
अब सबकी तरह मुझे भी सोचना था
मौसम, सगाई, शहनाई का समाज नहीं
परिवार के स्तर पर
महत्व कितना था
कर लिया हाथ मैंने भी पीले
और कर लिया समझौता क्रांति से
अब खुद में ही जीती हूँ
खुद की सोच में मदद को
हाथ खुले रखती हूं
मौसम खुद का अब भी हरीतिमा है
अब अपनी सोच को संतति में भरना है
हाँ,महत्व है इन सबों का...
ये मौसम,सगाई और शहनाई
ये खुशियां है,आशा,चेतना और सपने हैं
यथार्थ यही कि जीवन यात्रा में
सभी एक दूसरे से बंधे हैं,
एक दूसरे से बन्धें हैं.
अपर्णा झा

वो चूड़ियों वाला

"वो चूड़ियों वाला"

"बाबा क्यों बेचते हो चूड़ियाँ
इस उम्र में भी...
कहीं ऐसा तो नहीं,कोई
किस्सा आपकी पीछे है छूट गई"
मेरा तो यूँही मजे का अंदाज़ था
पर लगता था जैसे दिल का
कोई तार
उनका मैंने छेड़ दिया था...
बोले...आ बैठ सुनाऊं तुझे
एक कहानी
सोचो तो मेरी और नहीं तो
एक राजकुंवर की थी
जवानी में एक गुड़िया को
दिल दे बैठा
रोज रंग बिरंगी चूड़ियों से
उसकी कलाई था सजाता
चूड़ियों की खनक...
मानो हमारे  लिये थी
सावन की आमदगी,या फिर
किसी पपीहे ने कोई
नई राग छेड़ दी या
दादुर कहीं  नृत्य कर रहा
और इसी बहाने से अपनी प्रेयसी को
था वह रिझा रहा
दिन बढ़े, और हर बार एक नई
दहलीज को पार किये
पर छूटी ना कभी संग चूड़ियों की
मौसम चाहे कितने आये
उत्सव तो बस जाना उनकी
चूड़ियों के खनक से ही
अपने पर जब तक रही जीवन की
बाग-डोर
ना कम होने दी चूड़ियां और
ना कभी फीका हुआ रंग-रोग
आज आश्रित हूँ भविष्य के कांधो पर
नहीं चलता है अपना कोई ज़ोर
इस बुढ़ापे में हम दोनों को
कर दिया अलग
एक इधर है तो एक उधर
कहीं दूर अकेली बैठी है,वो मेरा
इन्तिज़ार कर रही है
आज उम्र की इस दहलीज़ पर
पैसों की चका-चौंध पर
कुछ भी नहीं मेरा बचा है
हम दोनों के प्यार को
अपनों ने ही फासला दे दिया है
एक तरफ वो,और दूसरी
तरफ़ हम हैं
चूड़ियां हैं,खरीदार है
और बाज़ार कहीं भी ना कम हैं
पर हम जैसे प्यार करने वालों को
यहाँ समझता कौन है
पैसों की नहीं मुझे कोई कमी है
चूड़ियों ही हैं मेरे सोच की साथी
संग दो वक्त का दे और फिर बिक जाती
चूड़ियाँ इस लिये बेचता हूँ, कि तुझ
जैसे बेटियों से थोड़ी देर ही सही
कुछ अपनी कह-सुन लेता हूँ
ना जाने फिर कब उससे मुलाक़ात हो
बस इसी बहाने से अपने
गम को भुला लेता हूँ
गम अपने भुला लेता हूँ
इतना सुनने में ही अपनी तो
हालत बुरी हुई थी,ना सोचा था
इन रंग बिरंगी चूड़ियों में भी
छिपी ऐसी कोई दास्तां होगी
सच ही तो था...
खरीदार ही तो थी मैं
तब से आज तलक सदमे में हूँ,
वाकई उस दिन से
सदमें में हूँ मैं.
अपर्णा झा