गैरों की नज़रों की परवाह ही क्यों
हम तो लाफानी लम्हों को जिया करते हैं
और इस तरह...
तुझे लम्हा दर लम्हा याद किया करते हैं
तूँ नहीं इस जगह तो क्या...
एक प्यार है, क्या खातिर इसके
जरूरी तो नहीं दुनयावी होना
जिस्मानी होना
तूँ आसमानों में है चाँद और
तारों की शक्ल लिये
मैं धरा बन तुझे निहारा करती
हो जाती जो गुफ्तगू जीभर
समेटे तेरी वो हर बात
दुनिया से किनारा करती
अंधेरी रातों में दिए के मानिंद
एक आस लिये जी जाती
और इसी बहाने से कि
ख्वाबों में भी तूँ आये जरूर
गहरी नींद मैं सो जाती..
अब बताओ तुम्ही...
है क्या मुझमें अब भी तेरी कमी
है अब भी क्या कोई बात अधूरी
तूँ ही तो है मेरे जीवन की धूरी
यही तो है मेरा जीवन
तुझ से ही है मेरी जिंदगी पूरी.
अपर्णा झा
Saturday, 28 July 2018
अधूरा
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बढिया रचना
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