" सांस्कृतिक विरासत के धरोहर "
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आखिर पहुँच ही गई मैं मोदीजी के कर्मभूमि पर और उनके प्रिय विषय "बनारसी
बुनकरों "तक. कला संस्कृति में मेरी रूचि ने मुझे जिन माहिर कलाकारों और कारीगरों से मिलवाया है मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि पुराने जमाने के तपस्वियों से मुलाक़ात तो नहीं हुई परन्तु आज के जमाने में तपस्वियों का रूप मैंने इन्हीं में देखा है. ऐसी कारीगरी, छवि एक फ़कीर-सी, बातें करो तो एक निश्छल सी मुस्कान चेहरे पर और नहीं तो अपनी तपस्या में रमें हैं ये लोग.
वाकई आज जब बनारस के इन बुनकरों और मालिकों से मिली तो पता लगा की इन बुनकरों का जीवन इतना आसान नहीं होता जितनी आसानी से ये हमसे मुस्कुरा कर मिल जाते. एक कमरा जिसमें हस्तकरघा लगा होता , ना कोई शाही बैठक और रौशनी भी ठीक उतनी ही जो इनके काम को अंजाम देदे. इसी धुंधली सी रौशनी के आलम में नित्य अपने कारीगरी से कला को जन्म देना और उसे परवान चढ़ाना, कितनी खूबसूरत और दिलकश सी लगती ये बातें पर इसके पीछे की सच्चाई भी उतनी ही कड़वी.
आंकड़ों और सहयोग कि बातों को में ना पड़ते हुए इससे परे हमें इस सच्चाई को जानना पडेगा कि इतनी बारीक काम करने में कारीगरों की कम उम्र में ही आँखों की रौशनी घटा देती है और रीढ़ की हड्डी एवं पसलियों को रोगग्रसित कर देती है इस कारण यह बहुत दिनों तक काम करने लायक नहीं रहते. जो पैसा इन्हें मालिकों से मिलता है उसके जीवन यापन योग्य नहीं होता और इस कारण इनके बच्चे पलायनवाद की राह पर हैं.विरासत में मिली कला ,गरीबी की मार और भौतिकटावाद की प्रतिस्पर्धा के आगे अपनी साँसे गिनें क्या यह उचित होगा. ऐसे कारीगर जिनकी लगन और मेहनत से हमारी सांस्कृतिक विरासत विश्व पटल पर हमेशा से गौरवान्वित होते रही है क्या इन्हें लोगों का समर्थन और सरकार की सीधी छत्र-छाया(जहाँ बिचौलिए या मालिकों का इन्हें मुँह देखना ना पड़े) नहीं मिलनी चाहिए ताकि हमारी कला ,कलाकार, और कारीगर स्वछन्द हो ख़ुशी से साँसें ले सके.
मोदी सरकार ने कदम तो उठायें हैं, पर इतने दिनों की बदहाली के बाद मन हमेशा शंकित रहता है कि आशा के सपने देखने के बाद कहीं फिर से वो कराह ना निकले_
"थी मुझे जिनसे वफ़ा की उम्मीद, वो नहीं जानते वफ़ा क्या है"_
--- मिर्ज़ा ग़ालिब
@Ajha. 26.08.16
Copyright @Aparna Jha
Photo and vedeo @Ajha, Aparna Jha.
Friday, 26 August 2016
विरासत के धरोहर
Wednesday, 24 August 2016
एक परिप्रेक्ष्य: सास-बहू का किस्सा
एक परिप्रेक्ष्य:सास-बहू का किस्सा(बेटीपढ़ाओ,बेटी बचाओ)
रीता कई दिनों से अपने पति औरघरवालों को उदास देख रही थी और यह भी सत्य था कि वह खुद भी उदास सी ही रह रही थी. उसके मन में कई सकारात्मक एवं नकारात्मक भाव उत्पन्न हो रहे थे जिस से वह खुद को भी जोड़े जा रही थी .विस्मित हो रही थी कि वह किस भावना से ज्यादा दुखी है_पति के दुःख से या बच्चों के दुःख से या तुलनात्मकता अपने भावों और पति, बच्चों के सोच और दुःख से.उसे आज समझ नहीं आ रहा था कि उम्र के 50वें पड़ाव में ये कैसी उथल-पुथल, जिसमें वह फंसी जा रही थी,जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसने तो गार्हस्थ जीवन को जीना सीख लिया था और फिर उसी अनुरूप अपने घर के कामकाज ,बाल-बच्चे और पति के साथ सुख से जीवन व्यतीत करने लगी थी. हर छोटी-छोटी बातों पर खुश हो लेना, अपने सपने को बच्चे और पति के भविष्य में देखना यही तो अब उसका सपना हो चला था.
वह दुबली-पतली सी भारतीय नारी की साक्षात प्रतिमूर्ति को आज कल ऐसा क्या हो गया था जो बेचैन हो रही थी ,अपने ही सवालों और जवाबों में कभी उलझती जाती और कभी संतुष्ट हो लेती.आज उसे अपने जीवन की तस्वीर किसी चलचित्र के मानिंद मानस पटल पर घूमे जा रही थी. वह यह भी देख पा रही थी कि कैसे उसका विवाह हुआ,कितने नाज़ों अरमानों से पाली वो बेटी आज अपने नए अरमानों के साथ अपना घर बसाने जा रही है. मन में नए रिश्ते के प्रति उत्सुकता एवं उत्साह लिए रीता जब घर संवारने लगी तो कई कटु एवं मृदु सत्यों की उसे अनुभूति हुई. रीता एक अतिसाधारण दिखने वाली प्रेमभाव से जुड़ी हुई परंतु परिवेश के अंतर ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया. जब कभी कुछ वह नया करती या किन्हीं कठिनाइयों से गुजरती तो एक प्रेम या करूणा के भाव के स्थान पर यही कहा जाता कि सिर्फ तुम्ही एक महिला नहीं बल्कि सभी महिलाएं ऐसे ही घर चलाती हैं. पर शायद पुरुष इस बात को कहने में यह नहीं सोचते कि जो कुछ रीता सोचती है, वैसी ही सोच लगभग सभी स्त्रियों की होती है .फर्क बस इतना होता है कि कुछ स्त्रियां रीता की तरह शांत हो जातीं हैं और कुछ अपने अस्तित्व के लिए खड़ी हो उठती हैं.
समय बीतता गया, रीता के बच्चे माँ की स्थिति को भली भांति समझते हुए अपने सुखद भविष्य की तैयारी में जोर-शोर से जुटे थे और साथ ही अपनी माँ को हंसी एवं सुखद भविष्य के सपने भी दिखा खुश रख रहे थे. आज बच्चे अपने पाँवों पर खड़े हो गए थे और गार्हस्थ जीवन में भी प्रवेश ले चुके थे. रीता का पति जो अब पिता के संग ससुर भी बन गया था, पिता होने के नाते बेटी को ससुराल में तनिक भी तकलीफ में पा कराह पड़ता और पत्नी से कह उठता_"कितने अरमानों से बच्ची को पाला पोसा कि राज करेगी, पर यह क्या???" वहीँ वही पिता ससुर बन अपनी बहू की शिक्षा-दीक्षा, उसके संस्कारों के पुल बाँधने लगे और अपनी पत्नी ,बेटे को बहू को कुछ कहने से रोके,मन में एक टीस उठे कि दूसरे की बेटी है कहीं हमसे अन्याय ना हो जाए.
रीता आज इन्हीं बातों को सोच हैरान हो रही थी कि जब वह इस घर में आई थी तो शायद उसे भी इसी करुणा एवं प्रेम की आस थी, तब यह सोच कहाँ थी?
सच्चाई शायद यहीं तक नहीं बल्कि पराकाष्ठा तब होती है जब वही बच्चे जो अपनी माँ को जीवन का प्रेरणाश्रोत मान सुखद जीवन तो जीते हैं परंतु अब उनके पास उस माँ को सोचने की फुर्सत कहाँ. तभी यह स्त्री मन पूरी तरह से टूट जाता है और उसकी तड़प, छटपटाहट जो प्राकट्य रूप लेता है वह ही जाने-अंजाने "सास-बहू के किस्सों" को अंजाम देती है जिसका हिस्सा बनना कोई स्त्री कभी भी अपने कल्पना में भी आने देना नहीं चाहती है.
*"बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ" के तहत सरकारें नियम बनाती रहें परंतु इसकी सफलता तभी हो सकती जब सोच में बदलाव हो.
Monday, 22 August 2016
छुई मुई
ऐसी फूल सी थी वो छुइ- मुई
नजाकत भी खूब थी उसकी
हँसती - खिलखिलाती वो हरदम
सुबह की ताज़ी - सी वो धूप एकदम
गुन - गुनाना , चहचहाना , वो बातें बनाना
मासूम सी,वो प्यारी परी
एक मुजस्सिमा है सरापा नूर की
एक बंद किताब है मेरी जिंदगी की
जिंदगी तुझको तो बस ख्वाब में देखा हमने .
क्या हकीक़त भी होती है इतनी हँसीं .
@ Ajha . 19. 03. 16
कभी यूँ भी होता
क्या अधिकार दूँ कि लब खामोश हो गये
इन जज्बात की बातों में अल्फाज कहीँ गुम हो गये
ऐ वक्त ज़रा तू भी तो ठहर कि
इक पल को ज़रा मैं भी तो जी लूँ .
कभी यूँ भी होता गुजरती मैं उन गलियों से
जो पस - मंजर मैं यार होता
इक पल को ही सही
मुझे उनका दीदार होता
ना फ़िर होतीं कोई जिंदगी में चाहते
इबादत ही होती मेरी राहते
ना फ़िर कोई चाह नेमतों की
ना फ़िर कोई राह जेहमतों की
ना कोई लम्स चाहिये , ना कोई तिशनगी कोई
ना आरायिश ही कोई
फ़कत इक पल का दीदार , इक इजहार
और इक ख़याल कि इसी हाल में
सुपुर्दे खाक हो जाता .
सुपुर्दे खाक
सुपर्दे खाक
क्या अधिकार दूँ कि लब खामोश हो गये
इन जज्बात की बातों में अल्फाज कहीँ गुम हो गये
ऐ वक्त ज़रा तू भी तो ठहर कि
इक पल को ज़रा मैं भी तो जी लूँ .
कभी यूँ भी होता गुजरती मैं उन गलियों से
जो पस - मंजर मैं यार होता
इक पल को ही सही
मुझे उनका दीदार होता
ना फ़िर होतीं कोई जिंदगी में चाहते
इबादत ही होती मेरी राहते
ना फ़िर कोई चाह नेमतों की
ना फ़िर कोई राह जेहमतों की
ना कोई लम्स चाहिये , ना कोई तिशनगी कोई
ना आरायिश ही कोई
फ़कत इक पल का दीदार , इक इजहार
और इक ख़याल कि इसी हाल में
सुपुर्दे खाक हो जाता .
@ Ajha . 14. 03. 16
सुपुर्द ख़ाक
ये बादे - बहार ,
ये रुस्वाइयों का आलम
काश के नज़रें मिल जातीं
मुनाज़िर ज़रा देख लेते .
हाँ बहारें आईं थीं , संग खिजां भी लाई थीं
ऐ दोस्त बहारों को इलज़ाम ना देना
मौसम ही तो था , अपनी खुशियाँ दे गया
ये नज़रों की अदला - बदली
वो ख़ुशी ओ ग़म की आँख मिचौली
रंगत भी है कुछ जुदा - जुदा
चहुं ओर पसरा ये सन्नाटा
लगता है फ़िर किसी की मौत हो गई
वो तो गहरी नींद सो गया पर
फ़िर से जहान खुशियों में तब्दील हो गया
एक फ़कीर तन्हा जो आया था
आज सुपुर्दे खाक हो गया .
@ Ajha .06. 03. 16
हिचकियाँ
हिचकियां आईं थीं मुझको
हाँ , शायद वो फ़िर याद आया .
कहा करता था मुझसे , अब क्या लिखूं मैं कविता
कल्पना में मेरी जो थीं बसती, वो मुझे था मिल गया
मेरा औचित्य वही, जीवन आधार वही
वो ही है धूरी जिस पर कर रहा था वो परिक्रमा
कुछ समझ आता नहीं
ये ज़िंदगी भली या वो जो थी मृग तृष्णा
आज ज़िंदगी के मायने बदल गये
कहता था कलतक वो जो कुछ भी मुझ से
वही आज हो गई जीवन के उसके हिस्सा
कलतक जब ना था वो पास उसके
थी पास उसकी कविता
आज जब है दूर वो उसके
जीवन उसकी बन गई है कविता
लोगों से अब पूछता वो फिरेँ _
क्यों जुदाई का सबब है ऐसा
सारी दुनियाँ हो जाती है एक तरफ़
इक वैरागी ही क्यों रह जाता तन्हा
प्रेम
प्रेम
किस प्रेम की है तुझको आस ,
तुम्हीं बताओ मुझ को आज .
प्रेम किसे तुम कहते हो ,
वो जिस वासना में डूबा संसार ?
जो लिखे हुए दीवारों - दरख्तों पर आज ?
या प्रेम तुम्हें वो लगती है , जो
भरी पड़ी है वरकों में , अल्फाजों में अफरात?
दुनियाँ का तुम भरम ना पालो ,
माया - जाल के भँवर में फँस ना जाओ .
सच्चा प्रेमी ऐसा है ,
संग चले दुनियाँ के ,
पर अन्दर उसके खुदा है .
पानी जैसा निर्मल है वो ,
आकाश के जैसी सोच
दुनियाँ का वो सबसे प्यारा ,
खुद के लिये तन्हाई उसकी संगी है .
पर याद करो जो उसको
चेहरे पे मुस्कान- सी छाई है .
यही हकीकत प्रेम की
इसे ही प्रेम माना है.
ऐसे ही संग में जीवन बिताना है@ Ajha . 27. 01. 16
Wednesday, 17 August 2016
सोच, आसमान की उड़ान में
हर बात में गहराई को आंकना
अच्छा लगता था
हिम्मत ना थी
उंचाईयों को सोचने की
खुशियों की उम्र थी
लंबी इस कदर ,यह सोच कर
हमसे भी नीचे की दुनिया है
जीना तो है बस सहर भर
नसीब में रोटी तो है शाम ओ सहर
नींद को भी कहाँ चाहिए थी शाही बिस्तर
कई चांदनी रातों को निहारे
कितनी ही बातें की थी हमने
और की थीं मिन्नते चाँद से
काश! कि तुम जमीं पे होते
या उड़न तश्तरी पे होकर
तुम तक हम जा पहुँचते
कितने थे प्यारे ये सपने,
यूँ ही रात गुज़र जाती
ख्वाब में ही सब बात निपट जाती
आज ये क्या हुआ!
उड़न तश्तरी था सामने तैयार खड़ा
आकाश में उड़ने ,
बादलोँ से बातें करने का
था फरमान हुआ
मान ली हुकूमत को
कमर भी कस लिया अपना
ख़्वाबों में जो था सपना
सच हो गया आज वो सपना
विस्मित थी
पर यह क्या !क्यों मुझे
हरी -भरी धरा अपनी प्यारी लगने लगी
श्वेत , धवल, नीलाभ यह अब क्यों
बदरंग से लगने लगे
मिथ्या ही था सब अब तक
मृगतृष्णा बन जो सताती रही
ख्वाहिश चाँद से मिलने की तब्दील हो गई
सच में दूर के ढोल सुहाने होते हैं
ऐ ज़मी तू ही जन्नत है, तू ही हकीकत
ख्वाब भी तूँ,
इन्तख़ाब भी तूँ ही
तूँ ही हूर और और देवी भी तूँ
'सत्यम, शिवम्, सुंदरम 'की सार्थकता.
समस्त ब्रह्माण्ड की तुझसे ही है व्यापकता तभी है तेरी इतनी महत्ता.
और नमन है तुझको हम सबका.
डोर (रक्षा बंधन के बहाने)
रक्षा बंधन की डोर
रेशम से बनी बेजोर
दिखने में कितनी ही कमजोर
कई रिश्तों से बंधी
है बस यही जिंदगी
इक बार जो देखा इसे
कई गाँठ थे लगे
दाग भी थे और कई
फरेब और ठगी की थी किस्सागोई
बेजुबान थी लाचार भी
पर ये क्या!
कलाई पर ज्यों ही बंधी
एक ताकत की अनुभूति हुई
वो जो कई गांठें थी
अब सम्मान है
एकजुटता का निगहबान है
सपना है ,अपना है
हकीकत है
हाँ ,कुछ पल के लिए सोच में
घुन लग गया था
अहंकार में रम गया था
आँखें जो खुली
सब कुछ थी वहीँ के वहीँ
वो रिश्ते, वो सपने
और सभी तो थे मेरे अपने
बंधे एक नाजुक सी डोर से.