Monday, 22 August 2016

हिचकियाँ

​हिचकियां आईं थीं मुझको 

हाँ , शायद वो फ़िर  याद आया . 

कहा करता था मुझसे , अब क्या लिखूं मैं कविता 

कल्पना में मेरी जो थीं बसती, वो मुझे था मिल गया 

मेरा औचित्य वही, जीवन आधार वही

वो ही है धूरी जिस पर कर रहा था वो परिक्रमा 

कुछ  समझ आता नहीं

ये ज़िंदगी भली या वो जो थी मृग तृष्णा 

आज  ज़िंदगी के मायने बदल गये 

कहता था कलतक वो जो कुछ भी मुझ से 

वही आज हो गई जीवन के उसके  हिस्सा 

कलतक जब ना था वो पास उसके

 थी पास उसकी कविता 

आज जब है दूर वो उसके

जीवन उसकी बन गई है कविता 

लोगों से अब पूछता वो फिरेँ _ 

क्यों जुदाई का सबब है ऐसा 

सारी दुनियाँ हो जाती है एक तरफ़ 

इक वैरागी ही क्यों रह जाता तन्हा 

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