Monday, 22 August 2016

सुपुर्द ख़ाक

 ​ये बादे - बहार , 

ये रुस्वाइयों का आलम 

काश के नज़रें मिल जातीं  

मुनाज़िर  ज़रा देख लेते .

हाँ बहारें आईं थीं , संग खिजां भी लाई थीं 

ऐ दोस्त बहारों को इलज़ाम ना देना  

मौसम ही तो था , अपनी खुशियाँ दे गया 

ये नज़रों की अदला - बदली 

वो ख़ुशी ओ ग़म की आँख मिचौली 

रंगत भी है कुछ जुदा - जुदा 

चहुं ओर पसरा ये सन्नाटा  

लगता है फ़िर किसी  की मौत हो गई 

वो तो गहरी नींद सो गया पर 

फ़िर से जहान खुशियों में तब्दील हो गया

एक फ़कीर तन्हा जो आया था  

आज सुपुर्दे खाक हो गया . 

@ Ajha .06. 03. 16

No comments:

Post a Comment