Wednesday, 24 August 2016

एक परिप्रेक्ष्य: सास-बहू का किस्सा

एक परिप्रेक्ष्य:सास-बहू का किस्सा(बेटीपढ़ाओ,बेटी बचाओ)

                रीता कई दिनों से अपने पति औरघरवालों को उदास देख रही थी और यह भी सत्य था कि वह खुद भी उदास सी ही रह रही थी. उसके मन में कई सकारात्मक एवं नकारात्मक भाव उत्पन्न हो रहे थे जिस से वह खुद को भी जोड़े जा रही थी .विस्मित हो रही थी कि वह किस भावना से ज्यादा दुखी है_पति के दुःख से या बच्चों के दुःख से या तुलनात्मकता अपने भावों और पति, बच्चों के सोच और दुःख से.उसे आज समझ नहीं आ रहा था कि उम्र के 50वें पड़ाव में ये कैसी उथल-पुथल, जिसमें वह फंसी जा रही थी,जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी. उसने तो गार्हस्थ जीवन को जीना सीख लिया था और फिर उसी अनुरूप अपने घर के कामकाज ,बाल-बच्चे और पति के साथ सुख से जीवन व्यतीत करने लगी थी. हर छोटी-छोटी बातों पर खुश हो लेना, अपने सपने को बच्चे और पति के भविष्य में देखना यही तो अब उसका सपना हो चला था.

                वह दुबली-पतली सी भारतीय नारी की साक्षात प्रतिमूर्ति को आज कल ऐसा क्या हो गया था जो बेचैन हो रही थी ,अपने ही सवालों और जवाबों में कभी उलझती जाती और कभी संतुष्ट हो लेती.आज उसे अपने जीवन की तस्वीर किसी चलचित्र के मानिंद मानस पटल पर घूमे जा रही थी. वह यह भी देख पा रही थी कि कैसे उसका विवाह हुआ,कितने नाज़ों अरमानों से पाली वो बेटी आज अपने नए अरमानों के साथ अपना घर बसाने जा रही है. मन में नए रिश्ते के प्रति उत्सुकता एवं उत्साह लिए रीता जब घर संवारने लगी तो कई कटु एवं मृदु सत्यों की उसे अनुभूति हुई. रीता एक अतिसाधारण दिखने वाली प्रेमभाव से जुड़ी हुई परंतु परिवेश के अंतर ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया. जब कभी कुछ वह नया करती या किन्हीं कठिनाइयों से गुजरती तो एक प्रेम या करूणा के भाव के स्थान पर यही कहा जाता कि सिर्फ तुम्ही एक महिला नहीं बल्कि सभी महिलाएं ऐसे ही घर चलाती हैं. पर शायद पुरुष इस बात को कहने में यह नहीं सोचते कि जो कुछ रीता सोचती है, वैसी ही सोच लगभग सभी स्त्रियों की होती है .फर्क बस इतना होता है कि कुछ स्त्रियां रीता की तरह शांत हो जातीं हैं और कुछ अपने अस्तित्व के लिए खड़ी हो उठती हैं.

                 समय बीतता गया, रीता के बच्चे माँ की स्थिति को भली भांति समझते हुए अपने सुखद भविष्य की तैयारी में जोर-शोर से जुटे थे और साथ ही अपनी माँ को हंसी एवं सुखद भविष्य के सपने भी दिखा खुश रख रहे थे. आज बच्चे अपने पाँवों पर खड़े हो गए थे और गार्हस्थ जीवन में भी प्रवेश ले चुके थे. रीता का पति जो अब पिता के संग ससुर भी बन गया था, पिता होने के नाते बेटी को ससुराल में तनिक भी तकलीफ में पा कराह पड़ता और पत्नी से कह उठता_"कितने अरमानों से बच्ची को पाला पोसा कि राज करेगी, पर यह क्या???"  वहीँ वही पिता ससुर बन अपनी बहू की शिक्षा-दीक्षा, उसके संस्कारों के पुल बाँधने लगे और अपनी पत्नी ,बेटे को बहू को कुछ कहने से रोके,मन में एक टीस उठे कि दूसरे की बेटी है कहीं हमसे अन्याय ना हो जाए.

                    रीता आज इन्हीं बातों को सोच हैरान हो रही थी कि जब वह इस घर में आई थी तो शायद उसे भी इसी करुणा एवं प्रेम की आस थी, तब यह सोच कहाँ थी?

                सच्चाई शायद यहीं तक नहीं बल्कि पराकाष्ठा तब होती है जब वही बच्चे जो अपनी माँ को जीवन का प्रेरणाश्रोत मान सुखद जीवन तो जीते हैं परंतु अब उनके पास उस माँ को सोचने की फुर्सत कहाँ. तभी यह स्त्री मन पूरी तरह से टूट जाता है और उसकी तड़प, छटपटाहट जो प्राकट्य रूप लेता है वह ही जाने-अंजाने "सास-बहू के किस्सों" को अंजाम देती है जिसका हिस्सा बनना कोई स्त्री कभी भी अपने कल्पना में भी आने देना नहीं चाहती है.

*"बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ" के तहत सरकारें नियम बनाती रहें परंतु इसकी सफलता तभी हो सकती जब सोच में बदलाव हो.

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