रक्षा बंधन की डोर
रेशम से बनी बेजोर
दिखने में कितनी ही कमजोर
कई रिश्तों से बंधी
है बस यही जिंदगी
इक बार जो देखा इसे
कई गाँठ थे लगे
दाग भी थे और कई
फरेब और ठगी की थी किस्सागोई
बेजुबान थी लाचार भी
पर ये क्या!
कलाई पर ज्यों ही बंधी
एक ताकत की अनुभूति हुई
वो जो कई गांठें थी
अब सम्मान है
एकजुटता का निगहबान है
सपना है ,अपना है
हकीकत है
हाँ ,कुछ पल के लिए सोच में
घुन लग गया था
अहंकार में रम गया था
आँखें जो खुली
सब कुछ थी वहीँ के वहीँ
वो रिश्ते, वो सपने
और सभी तो थे मेरे अपने
बंधे एक नाजुक सी डोर से.
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