Wednesday, 17 August 2016

सोच, आसमान की उड़ान में

हर बात में गहराई को आंकना
अच्छा लगता था
हिम्मत ना थी
उंचाईयों को सोचने की
खुशियों की उम्र थी
लंबी इस कदर ,यह सोच कर
हमसे भी नीचे की दुनिया है
जीना तो है बस सहर भर
नसीब में रोटी तो है शाम ओ सहर
नींद को भी कहाँ चाहिए थी शाही बिस्तर
कई चांदनी रातों को निहारे
कितनी ही  बातें  की थी हमने
और की थीं मिन्नते चाँद से
काश! कि तुम जमीं पे होते
या उड़न तश्तरी पे होकर
तुम तक हम जा पहुँचते
कितने थे प्यारे ये सपने,
यूँ ही रात गुज़र जाती
ख्वाब में ही सब बात निपट जाती
आज ये क्या हुआ!
उड़न तश्तरी था सामने तैयार खड़ा 
आकाश में उड़ने ,
बादलोँ से बातें करने का
था फरमान हुआ
मान ली हुकूमत को
कमर  भी कस लिया अपना
ख़्वाबों में जो था सपना
सच हो गया आज वो सपना
विस्मित थी
पर यह क्या !क्यों मुझे
हरी -भरी धरा अपनी प्यारी लगने लगी
श्वेत , धवल, नीलाभ यह अब  क्यों
बदरंग से लगने लगे
मिथ्या ही था सब अब तक
मृगतृष्णा बन जो सताती रही
ख्वाहिश चाँद से मिलने की तब्दील हो गई
सच में दूर के ढोल सुहाने होते हैं
ऐ ज़मी तू ही जन्नत है, तू ही हकीकत
ख्वाब भी तूँ,
इन्तख़ाब भी तूँ ही
तूँ ही हूर और और देवी  भी तूँ
'सत्यम, शिवम्, सुंदरम 'की सार्थकता.
समस्त ब्रह्माण्ड की तुझसे ही है व्यापकता तभी है तेरी इतनी महत्ता.
और नमन है तुझको हम सबका.

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