दिल हुम - हूम करे , घबराये . . . .
तेरी ऊँची अटारी , मैंने पंख लियो कटवाय . . .
जी हाँ सही समझा आपने . कला , संस्कृति और अपने प्राचीनतम समय में विचरण करने का एक अपना ही मज़ा भी है और नशा भी . ठीक उसी तरह का नशा , जैसे कि किसी को सिगरेट, दारू, पढाई इत्यादि का हो . कितना भी मुझे 'जोधा बाई ' होने के एहसास ने कुछ पल के लिये रानी बना दिया और उन शाही पलों में मैं खुद को खोने लगी पर जब वास्तविक जीवन की जीने की बात है तो लगता है प्रजातंत्र में जीने का एक अलग ही आनंद है . हो सकता है मेरी दलील एक पक्षीय हो . हो सकता है प्रजातंत्र में ही पहला साँस लिया है और अब तक लेती आ रही हूँ . अब आप अगर इसमें खामी निकालेंगे तो मैं यही कहूंगी कि इसका जड़ कारण भी 'आजादी का सही मायने में दुरुपयोग ' होना ही है .@ Ajha .
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