Thursday, 23 June 2016

दिवस चक्र

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दिवस चक्र

दिन-भर की थकान थी
रात बिस्तर पर लेटी हुई
आँखें अधखुली नींद से भरी हुई
दिन- भर का लेखा- जोखा कर रही
तन्हाई  मेरे साथ थी
अमावस की वो घुप्प अँधेरी रात थी
अनायास ही मैं बेचैन हो रही
अजीबो- गरीब खयालों में डूबी हुई
हर दिवस में एक दिन होता,
एक शाम होती, हर रात के बाद
एक सुबह फिर से क़त्ले आम होती
ख्वाहिशों के किस्से अधूरे मेरे
क्या सोने से छँट जाएंगे अँधेरे
क्या वो सुबह आएगी
यही सोचते ,गहरी नींद सो गए
मंदिर की घंटियाँ
आरतियों की सुर लहरियाँ
पक्षियों की चहचहाहट
अस्ताचलगामी चन्द्रमा
क्षितिज पर छायी ये सूर्य की लालिमा
सब जैसे एक तारत्मय में जुड़े
एक से लयबद्ध में बंधे
स्वर सामंजस्यता, तालयुक्तता
सहभावना
तभी गूंज उठी शहनाई की सुर साधना
सवेरा भी अब लगे नवेली दुलहन जैसे
प्रकृति के संग मधुर सम्बन्ध हो जैसे इसके
ब्रह्म मुहूर्त की जागी हुई
चाय की चुस्कियां कब मैं लेने लगी
अनेकों अनुभूतियों संग
आनन्दमय हुई भोर मेरी
अब मन में जोश है उमंग है
फिर से खुद को जगाने को
मिला एक और नया दिन है.
@Ajha.24.06.16

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