सदियों से सुनते आये हैं _
कि " लोग क्या कहेंगे ".
पीढियों ने मानी ,
समाजों ने जानी ,
कभी दबे मन से ,
कभी झुके सिर से ,
तो कभी दबे कदमों से ,
रवायतों को हमने मानी ,
कि लोग क्या कहेंगे .
कलियों को खिलने से रोका ,
तो कभी फूलों को हँसने से रोका .
कभी सरस्वती को रोका ,
कभी दुर्गा को दबोचा ,
इंसानियत को मिट्टी में मिलाया,
तो कभी प्रेम को शर्मसार किया ,
बस इसलिये कि
" लोग क्या कहेंगे " .
नये खयालातों से डर कैसा?
नये जज्बातों से डर कैसा ?
बदलती दुनिया के रुख़ से डर कैसा ?
क्यों कोई यह माने _
कि " लोग क्या कहेंगे " .
क्या वह आगे बढ़ पाया,
क्या वह तूफानों से डट पाया ,
क्या वो जी पाया , जिसने सोचा_
" लोग क्या कहेंगे " .
हवाओं को रोक सका ना कोई ,
समंदर का रुख़ मोड़ सका ना कोई ,
समय को रोक सका ना कोई .
लक्ष्य पर चलने वाले,
आगे बढा ही करेंगे .
रुक गया तो मौत हुई .
क्रांति के लिये रफ़्तार जरूरी है .
सोने वाले तो यही कहेंगे _
" लोग क्या कहेंगे "
फोटो web images se ली गयी है .
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