Sunday, 6 September 2015

रक्षा बन्धन के बहाने (डोर )

डोर को देखा ,
बहुत कमज़ोर है ,
बेजुबान है , बेचारी है ,
ज़िंदगी कहते हैं जिसको
एक डोर से बँधी है ,
क्यों ऐसा लगा _
बेचारी है , लाचार है ,
मूक है , मजबूर है .
रिश्तों से बँधी है .
फरेब है , फ़साना है ,
दाग है , गाँठ है .
फ़िर भी ऐसा क्यों लगा _
ये जो गाँठ है ,
यही हमारा  सम्मन है ,
हमारी ताक़त है ,
इसमें रहने की हमें आदत है .
यही सपना है ,
यही अपना है ,
बस सोच में घुन लग गया था ,
अहंकार में मन रम गया था ,
सब कुछ धूमिल हो गया था .
आँखें खुली _
ऐसी  अनुभूति हुई कि ,
देर अब भी नहीँ कुछ हुई .
_ _ _ _ Aparna jha

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