"देखो ना पांच महीने से अपनी बेटी-दामाद को संभाल ही तो रहे थे.सोचा था जैसे भी हो नाती को पांच महीने का पाल पास कर ही उसके दादा के घर भेजेंगे.कितना अरमान था ख़ुशी-ख़ुशी बेटी को ससुराल भेजने का, सब बेकार गया." शाम में अपने ड्राइवरी की नौकरी से गजानन घर लौटे ही थे कि पत्नी अपने रुआई स्वर में फूट पड़ी. दुःख तो गजानन को हुआ भी पर पत्नी को समझाते हुए खुद भी टूट पड़े थे. समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. विवाह के डेढ़ साल के बाद के अंतराल में गजानन ने ना जाने कितने तोहफे अपनी बेटी के ससुराल भेजे थे. अलावे इसके कि जब वह गर्भवती हुई तो गजानन ने बेटी को उसके मायके बुलवा लिया था. बिचारे सामजिक रिवाज़ और दो बेटे पर एक बेटी का पिता होना भुगत रहे थे. अपनी ड्राइवरी से इतनी कमाई करना चाहते थे जिससे परिवार का भरण-पोषण हो जाए. इसके लिए बेशक दिन और रात ऑटो रिक्शा क्यों ना चलाना पड़े.
आज गजानन अपनी वेदना अपने पुराने मालिक -मालकिन को सुना रहा था,जिससे उसे गहरी आत्मीयता थी. मालकिन ने तब गजानन को समझाया था _ "देखो गजानन, बेटी के लिए तुम्हारी ये तड़प वाकई सच्ची है, पर हमेशा याद रखना , अपने बच्चों के आगे कमजोर मत पड़ो. कुछ करना है उनके लिये तो एक मजबूत नींव की मानिंद खड़े रहो ना कि एक बैसाखी की तरह जो हमेशा तुम्हारा सहारा ले खड़ा हो. तुम्हारी जो जिम्मेदारी थी वह पूरी हुई, अब यह उनकी जिंदगी का कैनवास है ,अब उन पर छोड़ो कि वो रंग कैसे भरते है ."
Thursday, 5 January 2017
घर -संसार
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