Monday, 9 January 2017

बदगुमानी

"अरे तुम कब आईं  और ये छोटा बच्चा कितना प्यारा है...अभिव्यक्ति ने आकृति से पूछा . आज अभिव्यक्ति और आकृति शायद 24-25 साल के बाद मिले थे.
"नहीं-नहीं ,यह ना तो मेरा नाती है ना ही पोता.
बल्कि यह मेरे माली का बेटा है...." आकृति ने बच्चे की ओर देख मुस्कुराते हुए कहा था....और अब यह मेरे साथ ही रहता है मेरे बेटे की मानिंद"'
            अभिव्यक्ति बड़ी हैरानी से आकृति की बातें सुन रही थी साथ ही उसके चेहरे के भावों को भी पढ़ना चाह रही थी. विवाह के बाद अभव्यक्ति, आकृति के व्यक्तित्व में बदलाव को देख कर ही   अपने बचपन की सखी से दूरी बनाने लगी थी.उसे याद आ रहा था ,कैसे बचपन में दोनों अमीरी-गरीबी की बातों का खेल खेल जाते. कैसे दोनों अठखेलियाँ करती रहती थी.  स्कूल से आते-जाते बड़ी अट्टालिकाओं को देख मस्ती में ही 'ये तेरा महल ये मेरा महल',या फिर सामने से हवा से बातें करती हुई रोड पर बड़ी गाड़ियों का बँटवारा भी हो जाता, यहीं से शुरू हो जाती ख़्वाबों की ताबीर और मंज़िल के पहुंचने तक इमारत पूरी भी हो जाती.ऐसा ही था उनका बचपन एवं किशोरावस्था.परन्तु विवाह होते ही ख़्वाबों की ताबीर का ये हश्र होगा !अभिव्यक्ति को ऐसा आभास कभी भी नहीं था.अमीरों में ब्याही, बड़े ओहदे पर आसीन पति ने जैसे आकृति की सोच ही बदल दी थी.गरीबी क्या ,मध्यम वर्गीय लोगों से भी वह बात करने में कतरातीं. ऐसा लगता था कि कहीं इन लोगों की उसे नज़र ना लग जाए.
                 जैसा की यह माना भी जाता है कि समय से बड़ा कोई सीख दे ही नहीं सकता. आकृति के पति स्वभाव ठीक उसके विपरीत था. उन्हें हर किसी से के साथ उठना बैठना बहुत भाता था , परन्तु यह बात हमेशा ही उसे खलती थी . बच्चे भी ठीक अपनी मां पर ही गए थे. पढ़ लिखकर बच्चे जब बाहरी देशों में स्थापित हो गए. अब  माँ-बाप के लिए इनके पास समय नहीं,अपनी मस्तियों में झूमते इनमें भावुकता जैसी बात भी समाप्त हो चुकी थी. एक समय ऐसा भी आया कि आकृति के पति गंभीर बीमारी के हालत में , उन्हें अस्पताल तक उठा कर ले जाने वाला कोई भी नहीं, खून की जरुरत है  तो सगे- सम्बन्धी भी नदारद .ऐसे में इनका  कमजोर और गरीब सा दिखने वाला माली अपने मालिक को अस्पताल ले जाने से लेकर खून दान करना और  बेटे की तरह वहीं उनके पास बैठ ,सेवा करता रहा  इन विषम परिस्थितियों में माली का बेटा मालकिन को अपने प्रेम और तोतली भाषा में असिक्त  खिलाता-पिलाता और तब तक माथा सहलाता जबतक की मालकिन गहरी नींडी सो न जाती.
         अपने जिन बच्चों और सगे-सम्बन्धियों संग आजतक खुशियां मनाती रही, उन्होंने ही ऐसे मौके पर अचानक से आकृति को अकेला कर छोड़ा था.तभी उसे अपने बदगुमानी अहसास हो गया था .अब  समाज की विभक्तियाँ उसे खलती नहीं थी और सभी उसे अपने परिवार के सदस्य जैसे लगने लगे थे.अब वह विभिन्न प्रकार के पौधों वाली  बगिया की बागबान थी जिसे सींच कर उसे सुन्दर और अपना बनाना था.
           आज जब उस बच्चे संग इतने वर्षों बाद आकृति अपने मायके आई थी तो अभिव्यक्ति के समक्ष इन घटनाओं का जिक्र, मन पर से बोझ हल्का करना और बदगुमानी का प्रायश्चित करने जैसा उसे प्रतीत हो रहा था.

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