Monday, 30 January 2017

गुड़िया

"गुड़िया"
(आज के विषय पर आधारित कविता)

गुड़िया से मेरा प्यार पुराना
ये तो थीं मेरे दिल का नज़राना
एक अम्बार गुड़ियों का
घर में था सज़ा लिया
बोलती हुई गुड़िया
डोलती हुई गुड़िया
जी हुजूरी वाली गुड़िया
जो आँखों में बसा ली
अब दिल में थी उतर आई
सच की गुड़िया से
विवाह रचा लिया
कुछ दिन तलक वो
गुड़िया सी लगी
फिर बाद में वो बोलने लगी
आज़ादी की वो सोचने लगी
इंसान जो ठहरा मैं अहंकारी
कैद की गुड़िया थी मुझे प्यारी
लगने लगी अब वो भारी
खिलौने वाली गुड़ियों से भी
दिल भर गया
अब आवारा सा रास्तों पे
भटक रहा
गुड़ियों से इंसान सी ख्वाहिश
और फिर इंसान से
गुड़ियों सी ख्वाहिश
कैसा तूँ रक्षक इसका
कैसी तूने लीला रचाई
जो सोच ना सका
कभी इसकी भलाई
@Ajha.30.01.17
स्वरचित, मौलिक रचना
©अपर्णा झा

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