Thursday, 5 January 2017

अरण्या

"कर्मण्ये वाधिकारे माँ फलेषु कदाचन", आज अरण्या इस कहे का सही मायने में अर्थ समझ चुकी थी. शायद इस कारण से ही तो आज वह दुनयावी चाहतों और उम्मीदों से दूर,संतुष्ट एवं सुखमय जी पा रही थी. सात सन्तानों में सबसे छोटी होने के कारण घर -बाहर सबों में छोटी बच्ची ही बनी रही. माँ-बाबूजी से सीधे तौर पर कभी बात करने का उसका मौका ही नहीं आया. अपने बड़े भाई बहनों की बातें सुनते और उन्हीं को अनुसरण करते बड़ी हो रही थी. परन्तु परिवार और समाज में होते उठा-पटक ने ना जाने कब का उसे परिक्व बना दिया था ,परन्तु उसकी सोच को भी कोई समझ पाता,किससे बताती वह,उसने अपने लिए मन ही मन एक कल्पना की दुनिया बना ली थी और उस दुनिया में हकीकी समस्याओं को कल्पना पटल पर रख खुद ही सवाल बन जाना ,आत्म मंथम करना और खुद ही में समाधान पा मन ही मन खुश हो जाना, यही उसके जीवन का तरीका बन गया था. उसकी यह विशेषता उसे विषम से विषम परिस्थितियों में भी सकारात्मक जीना सुझा जाती थी.उसकी इस विशेषता को लोग शायद उसकी कमजोरी अथवा डर मान बैठे थे जबकि खुद में वह इसे आत्मबल मानती थी और इस कारण अरण्या कभी टूटी नही थी.इसी कल्पनाशील दुनिया में एक उसने परिवार का सपना देखा था जिसे वह हकीकी जामा पहनाना चाहती थी. उसने सोचा था कि समर्पण की भावना ही सुखी पारिवारिक जीवन का सूत्र है, पर यह क्या यहाँ तो  सूत्र ही उलटे पर गए.सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता मौन पड़ गई , अरण्या ने भी जीवन से समझौता कर लिया था कि बाकि का जीवन भी वह आशाओं और उम्मीद की ख्वाहिश में ही बिता लेगी.
बच्चों की सर्दियों की छुट्टी चल रही थी.आज काफी दिनों की ठंडक के बाद धूप की तपिश में बच्चे अपने स्कूली घरकाम कर रहे थे , तभी अरण्या की नज़र इंद्रधनुष के उस अधूरे से चित्र पर पड़ी, जिसे उसका बेटा बड़ी लीनता से उसे पूरा करने में लगा था. अरण्या के मन में भी एक बिजली सी कौंधी , उसने भी एक कैनवास ले कूची से ना जाने कितने ही रंग बिखेरे और बिखेरती चली गई.आज शायद उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान हो आया था . इंद्रधनुष में तो सात ही रंग होते है पर अरण्या इन रंगों के सहारे ना जाने कितने सारे और रंग बिखेरती गई और जहां कैनवास को भी अपनी सीमा बढ़ानी पड़ी.

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