Friday, 17 February 2017

मेरी सोच का सूर्य

मेरी सोच का सूर्य"
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"शुभ संध्या रौशन भाई"
"अरे आप! कहाँ थे इतने दिनों तक...नवीनजी,शुभ संध्या आपको भी."☺
" आपका पार्क में आना,घंटो प्रकृति को निहारना और कैनवास पर उतारना, पूर्णतः प्रकृति एवं कैनवास को समर्पित आप और बालकनी से निहारती मैं आपको मैं आपको समर्पित हूँ। "नवीन जी ने रौशन जी से कहा

" इधर दो चार दिनों से देख रहा हूँ कि पार्क में आपके साथ ना ही कैनवास होता हैं ना ही तूलिका और ना ही प्रकृति को आप उस रूप में निहार रहे होते हैं।अजीब सी मायूसी हर वक्त मुझे आपकी सूरत में दिख पड़ती है ?"
" बिलकुल सही कह रहे हैं रौशन भाई , जब मैं रोजगार के कामों में उलझा रथा तब ना जाने कैसे मेरी तूलिका मेरा साथ देती थी.'सूर्य' जिससे मैं ताउम्र आकर्षित रहा,कितनी ही चित्रकारियाँ कर डाली , और खुद को हमेशा यही दिलासा देता रहा कि गृहस्थ जीवन से निवृत हो अपनी चित्रकारी पर सारा समय दूंगा. 'सूर्य' को तूलिका की परवाज़ दूंगा,इंद्रधनुषी रंग दूंगा ,इसके तेज़ में चार चांद लगाऊंगा।
पर आज, मेरी सोच को ना जाने क्या हो गया ! ना जाने मुझे ऐसा क्यों लग रहा की सूर्य अब बूढा हो गया है.
इधर कई दिनों से मेरे दिमाग और दिल में एक युद्ध सा छिड़ गया हैं ।दिमाग कहता है सूर्य अब बूढा हो गया है और दिल इस बात को मानने को तैयार नहीं.मैं ने भी अभी हार नहीं मानी और अपने दिल की ही सुन रहा हूँ.बस बूढ़े सूर्य को जवां करने की सोच खुद में ला रहा हूँ और प्रण भी यही लिया है कि तभी अपने तूलिका और कैनवास को हाथ लगाऊंगा."
आज मैं भी उसी पार्क में रौनक जी के समीप बैठी उनकी बातें सुन रही थी.सोच रही थी की काश रौनक जी को अपने अक्स की तलाश मिल जाय ,ताकि फिर से उनका मन अस्ताचलगामी सूर्य में उसकी सुंदरता देखे ना की बूढा होता हुआ.

@Ajha.10.02.17

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