Friday, 17 February 2017

रिश्तों की मृगतृषणा

चाहतों की एक अनंत सूची
जहां सिर्फ अपेक्षाएं हीं
जो रूप लेलें महत्वाकांक्षाओं की
एक खतरनाक डगर चल निकले
जहां सोच और दृष्टिकोण एकपक्षीय हों
जीवन से सिर्फ शिकायतें
मन बेचैन ,सुनसान राहों पर भटक रहे
कहाँ रहता फिर सुख शांति जीवन में
हर स्थान ,हर रास्ता,हर इंसान
वक्त सभी तो झूठे से दिखने लगते हैं
हरदम हरपल एक अनजाना सा डर
साथ छूटने का, दर्द
रिश्ते टूटने का 
सताता हैं
क्षण भंगुर जीवन
रेल की पटरियों जैसी अनंत
लगने लगती है
हर मौसम दगा बाज़
ठगी और फरेबी का
चोली -दामन का साथ लगता है
किस्मत  हरदम उदास दिखती है
यकीनन सब है इक धोखा
बस इंतिज़ार रहे इन तूफानों
के गुज़र जाने का
क्षण भर का सब खेला है
इक परत पड़ी जो धूल की
कुछ पल ही धुंधला है
होश जो खोया मन ने
फिर लौट के आना ही है
फिर जो सोचो _
क्या तेरा और क्या मेरा
इसी सोच में गुज़रे दिन
तैयारी अब उस पार की
ये तो बस चार दिनों का
मेला है.
@ Ajha . 17. 02. 16
©अपर्णा झा

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