" उत्पत्ति : अपभ्रंश"
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ऐसा मनोरम दृश्य......
मानो जैसे बासंती मौसम ने हरीतिमा के संग एक पीताम्बरी आभा पूरे वातावरण में बिखेर दी हो.धूप भी बासंती हो चली हो,ऐसे में खुले आकाश के नीचे, अपनी बालकोनी में दरी बिछा मैं आँखें मूंदे हुए लेती हूँ.ना जाने कितनी ही बातें मस्तिष्क पटल पर सजीव हो घूम रहे हैं.इन सबके बीच परसों की वो घटना भी याद आ रही है कि कैसे सारी शाम मैं अकेले में मुस्कुराती रही. मन के शब्दकोष में तलाशती रही उन शब्दों का मतलब जिसे आजकल कामवालियों ने (झाड़ू-पोछा करने)अपने भावभिप्राय के लिए प्रयोग कर रही हैं. हालांकि इन शब्दों से मैं भली भांति परिचित हूँ.शब्दकोष में जो इसके अर्थ दिए हुए हैं उनसे भी परिचित हूँ ,परन्तु उस दिन उन शब्दों का प्रयोग ......
कुछ मज़ा ही अलग था.
हुआ यों कि मेरी कामवाली अपनी बीमारी के कारण काम पर नहीं आ पाई थी. रविवार और सोमवार के जूठे बर्तनों का अम्बार मुझसे सहा नहीं जा रहा था.परन्तु ठण्ड के मारे पानी छूने का मन भी नहीं☺.अपार्टमेंट के गार्ड भैया को फोन कर किसी कामवाली को भेजने को कहा.गार्ड भैया ने भेज भी दिया.दरवाज़े पर घंटी बजी.कामवाली को देख तत्काल ही मन आनन्दित हो चला था.तभी उसने मेरा साक्षात्कार लेना शुरू कर दिया ...कब?....क्यों?....कैसे?....
"अच्छा तो रोज के लिए नहीं चाहिये,प्राइवेट के लिए चाहिये? पर कब तक के लिए चाहिए ????
आज-आज के लिए चाहिए!!!!फुटकर कराओगे ?"
"ठीक है, तो पैसे की बात सुन लो. रोज के लिए तो वही चार्ज है जो महीने के अंत में सब लेती हैं. और जो 'प्राइवेट' या 'फुटकर' काम कराओगे तो उसके पैसे फिर 100रु रोज के हिसाब से......"
ये तो जानती थी कि हर क्षेत्र या व्यवसाय की अपनी एक भाषा शैली (professional language) होती है और उसी के अनुसार शब्दावली भी.परन्तु उस दिन जो व्यवसाय की भाषा शैली थी उससे परिचित तो थी पर उन शब्दावलियों(terminology)ने मुझे आज तक विस्मित कर रखा है. कहीं अपभ्रश शब्द एवं भाषाओं की उत्पत्ति ऐसे ही तो नहीं.......!!!!
.....'रोज का' , 'प्राइवेट', 'फुटकर'😢😊😎
@Ajha.09.02.17
©अपर्णा झा.
Thursday, 9 February 2017
शब्द उत्पत्ति : अपभ्रंश"
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