Sunday, 3 April 2016

एक सामाजिक सोच : प्रत्युशा के संग

श्रद्धांजलि
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बहुत सोच में पड़ी हूँ कि इस घटना को मैं परिभाषित कैसे करूँ . एक तरफ़ तो हम नारी को सहभागी कहते हैं , सम्मान की दृष्टि से देखते हैं . कन्याओं को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं . हर माँ - बाप जो अपनी बेटी को बेटे से बढ़कर पालन - पोषण दे रहा है , उसे समाज में बराबरी में लाने की कोशिश कर रहा है _ याद रखियेगा समाज और लोगों की मानसिकता किसी बेटी के माँ - बाप से कदापि मेल नहीँ खाती . अगर मेल खाती भी है तो उनकी संख्या अपवाद स्वरूप ही होती है .
     आज प्रत्युशा बनर्जी का इस दुनियाँ से इस तरह से जाना कई बातों की निशानदेही करता है , ये बात और है की जिस चमचमाहट वाली दुनियाँ में उसने क़दम रखा था तो उसके मौत का कारण भी लोग उसे ही ठहरायें , ये कोई आश्चर्य की बात नहीँ होगी .
       किसी भी घटना या दुर्घटना के घटित होने पर कदापि यह ठीक नहीँ कि अनायास ही अंजाम पर पहुँच जाये या फ़िर समय पर दोष आरोपित करें . किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व पर किसी एक समय या छवि का असर एक पल में नहीँ हो जाता बल्कि जन्म से लेकर ता उम्र जो कुछ भी उसके सामने होता दिख रहा होता है _ चाहे वो समाज की बात हो , परिवार हो या  परिवेश _ ये सभी बातें जाने-  अनजाने ही प्रभावित कर जातीं हैं .
          एक तरफ वर्तमान में तो हम परिवार में इतना बदलाव देख पा रहे हैं जहाँ बेटा- बेटी समान रुप से परवरिश पा रहे हैं पर ऐसा क्या हो रहा है एक पौधा जिसे सींच कर पेड़ बना दिया गया हो पर फल लगने से पहले ही टूट कर गिर जाता है .   मेरा बस इतना मानना है कि हमें कुछ सोच में बदलाव की समाज में आवश्यकता है ना सिर्फ नारी बल्कि पुरुषों में भी असमय मौत , चाहे उसका कारण जो भी हो , समाज को एक गहन सोच की आवश्यकता है .
@ Ajha . 02. 04. 16.
Aparna Jha

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