Friday, 1 April 2016

कितने फ़साद है . . .

आज बड़ी  प्यारी सी कविता  whatsapp पर मैंने पढी . मुझे लगा कि शायद अपनी जगह हर कोई सही सोचता है , परन्तु पढ़ने वाला किस सोच से प्रेरित है , यही से शायद शुरू होता है तर्क - वितर्क , वाद - विवादों का सिलसिला . और इसका अंतिम फ़ैसला भी वही है जो नदी के दो किनारों का , रेल की पटरियों का . असहमति की स्थिति में रेल की पटरियों वाला हाल होता है जहाँ अगर पटरियों को गलती से भी मिला दिया तो रेल की दुर्घटना निश्चित,  पर नदियों के साथ थोड़ी परिभाषा अलग हो जाती है .नदी के आपसी किनारे मिलते तो नहीँ पर अगर दो तीन नदियाँ आपस में एक जगह मिल जाये तो संगम बना देती है , जहाँ संकीर्णता का अंत और विस्तार का प्रारम्भ हो जाता है .
ऐसे ही कुछ सोच का मिलन है यह कविता और अंत में मेरी कविता . . .

समंदर सारे "शराब" होते तो सोचो कितने फसाद होते...

"ख्वाब" सारे हकीकत होते तो सोचो कितने फसाद होते...

किसी के "दिल" में क्या छुपा है बस ये खुदा ही जानता है, दिल अगर "बे नक़ाब" होते तो सोचो कितने फसाद होते...

थी "ख़ामोशी" फितरत हमारी; तभी तो बरसों निभा गई, अगर हमारे मुंह में भी "जवाब" होते तो सोचो कितने फसाद होते...

हम "अच्छे" थे, पर लोगों की नज़र मे सदा रहे बुरे, कहीं हम सच में "खराब" होते तो सोचो कितने फसाद होते...
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शायद जवाबों का सही होना फ़साद हो नहीँ सकता
इक नासमझी ही होती है फसादों
का जड़
क्यों समझते हो कि जवाबों से
फ़साद उठ खड़ा होगा
क्या तुम्हें अपने कहे पर विश्वास नहीँ
दिल में बसा कर जख़्मों को
क्या मिलेगा तुम्हें खुद को तड़पा कर
ये जिंदगी यूँ ही खैरात में मिलती नहीँ
ना हो यकीं तो जा के पूछ लो
मौत और जिंदगी के बीच जूझने वालों से .
@ Ajha . 22. 03. 16
Aparna Jha .

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