Monday, 11 April 2016

ज्योति की आस में . . . .

एक ज्योति की ही तो थी आस
क्यों मंदिर जल के खाक हो गये _

कल तक जो लोगों का मजमा था यहाँ
क्यों आज मौत का सामान हो गये

कैसी तक़दीर लिखी थी विधना ने
अरमानों , ख्वाहिशों में सब तबाह हो गये

देखा ना होगा ऐसा मौत का मन्ज़र
पलक झपकते वक्त के मेहमान हो गये

रहम कर , रहम कर मेरे मालिक
किसी ने भी ना सुनी एक भी , सुपुर्दे - खाक हो गये

क्या कमी थी उसके इबादत में तेरी
कि देखते ही देखते उनकी दुनियाँ वीरान हो गई

ग़म इस बात का नहीँ कि दुनिया वीरान हो गई
ग़म इस बात का , कि तेरी पहचान हो गई .

सहानुभूति .
@ Ajha . 11. 04. 16

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