Friday, 1 April 2016

सोच के दायरे कितने तंग . . .

सोच के दायरे भी कितने तंग थे मेरे , सोचती थी ख्वाहिशें हैं मेरी कितनी छोटी - छोटी .

मुक्कमिल होने को ही थी ख़्वाहिशें मेरी
देखा है मैंने  पांवों तले जिंदगी खिसक गई .

हर कोई हैरान होता है तूफां से दिये को बूझते देख
काश कि कोई उस शम्मा को देखता जिंदगी को तूफां से खुद को बचाते हुए

हर किसी को देखती हूँ बेहोशी में जिंदगी को बशर करते हुए
इंसान तो वो है कि बाहोश जिये जाते है .

उसकी यादें ही थीं सरमाया मेरे जीने के लिये
ना था मालूम कि शराब से भी ज्यादा कीमत चुकानी होगी .

चलो अच्छा हुआ कि जिंदगी को मेरे एक रोज़गार तो मिला ,
वरना जिंदगी यूँ ही बीत जाती ख़ुशी मनाते हुए

ये भी अच्छा ही हुआ थोड़ी जेहमत ही हुई 
मुखौटे कितने हैं इस दुनियाँ में  पहचान तो हुई .
@ Ajha 19. 03. 16

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