Friday, 28 September 2018

मन की आवाज

"मन की आवाज़"
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वो तेरी दुआओं का असर था
जिंदगी रफ़्तार से बढ़ती रही

था नहीं कुछ भी मुक्कमिल पर
एक एहसासे मुक्कमिल बनती गई

दिन बा दिन उम्र ढलती रही पर
उम्र  दराज़    लगने लगी

हवाओं में एहसास तूफानों सा
आज वही 'नसीम' बन दिल को बहलाने लगी

अफवाहों का बाज़ार फिर क्यों गर्म हुआ इस कदर
जिंदगी बेवजह जलाने लगी

यूँ झूठ इतनी काबिज़ हो गई दुनिया पर
सच्चाई बहाने लगने लगी

सच्चआइयों में जीना क्यों हो गया दुश्वार इतना
ईमानदारी मौत के बहाने ढूंढ लाने लगी

कोई तो रहमो-करम होता उस पर,
इतने मौत के साए ना उन पर मंडराए होते.

रहम कर ,रहम कर ऐ दुनियावाले कि
अब तो खुदा भी उस पे रहम बरपाने लगे
@Ajha.28.09.16

Thursday, 30 August 2018

" एक ख़याल ऐसा भी" (बारिश के बहाने)

बस यूँ ही,

" एक ख़याल ऐसा भी"
(बारिश के बहाने)
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यूँ तो बारिश ने खूब उधम मचाई आज
हम तो  यूँ ही थे रहे जश्न मना
दूर किसी के आह की हुई सदा
पता हुआ पडोस के घर उनके
अपने का चौथी का अरदास हो रहा
ऐ जिंदगी ये तेरी कैसी पहेली !
एक ही वक्त किसी को फूल किसी को कांटे दे दी
रास आता नहीं तुझे इक संग सबों का खुश होना
एक ही वक्त किसी की मुहब्बत किसी का ग़म हो ली
दूर तलक नज़र गई लोग ही लोग नज़र आये
एक ही वक्त किसी के लिए भीड़ किसी के लिए तन्हाई थी
अमन ओ चैन क्यों नहीं रास आती तुझे ऐ जिंदगी!
एक ही वक्त किसी को अमीरी तो किसी को गुलामी दे दी
वक्त का ये सितम कैसा
क़त्ल ओ ग़ारत से जलाई जो शमा
एक ही वक्त कहीं रौशनी  कहीं अंधियारा भर दी
दरसे-पाकीज़गी जो पढ़ाया होता एक जैसा
एक ही वक्त किसी को जन्नत किसी को दोझख ना मिली होती
ऐ बारिश अब के झूम के इतना तूँ बरस
भीग जाए हर कोई
धूल जाए हर के ऊपर और नीचे का हिसाब
बस जमी रहे खुशियों की महफ़िल
और जन्नत से खुदा जोर से  ये आवाज़ लगाए
हुज़ूर ज़रा हम पर भी तो गौर फरमाएं.
@Ajha.31.08.16

Saturday, 25 August 2018

रक्षा बंधन की शुभकामनाएं

रक्षाबंधन की शुभकामनाएं.

कितने ही दुआओं में पल रही है
जिंदगी,ये कायनात
याखुदा!सबों को खुशियां अता कर
अता कर.
पुरनूर हैं जहाँ, चांदनी से,सरे जा को
रौशनी अता कर.
तस्सवुर में है तस्वीरे जाना की,हरकिसी को
हकीक़त अता कर.
हकीकत भी यूँ जलवागर हो,नसीब इतराये
वो तिलस्म अता कर.
दीदाये खुशनसीबी भी यूँ हो,पैर जमीं को
परवाज आसमान अता कर.
तेरी राहों पर बिख जाऊं गीली बन की
हर जर्रे में तूँ ही तूँ दिखे,ऐ परवरदिगार!
वो नज़र अता कर.
तेरी याद,तेरी आवाज़,तेरा दीदाये कायनात
हरदम,हर घड़ी लब पे रहे
वो ताक़त अता कर.
तेरी सोच,तेरी इनायत हो मेरी मिलकियत हो
ना हो जिंदगी में कोई तन्हाई
वो सबब जिंदगी की अता कर.
बस तूँ,तूँ और तूँ ही रहे,यही जिंदगी,
जिंदगी,जिंदगी रहे
मेरे मौला यही प्यार और
वो कशिश अता कर,
अता कर.
अपर्णा झा

Saturday, 18 August 2018

अंतर्द्वंद

"अंतर्द्वंद"
ये कैसा अंतर्द्वंद
ये कैसी छटपटाहट
मन कहे कुछ और
दिमाग कहे कुछ और
एक इश्तहार
जो चिपकी लगी थी दीवार
शक्ल बड़ी थी जानी पहचानी
लोगों का था उसमें अटूट विश्वास
आज उसी चेहरे में
क्यों उन्मादी का रंग है दिख रहा
मन अशांत बेचैन सा है क्यों मेरा
वो तो अपना काम कर
है चैन से सो रहा
कल तक उसकी बातें ,उसकी जज़्बातेँ
ठीक सी ही तो थीं लग रही
एक-एक शब्द जो बोले
लगता था कसौटी पर खूब गढ़ी
क्या हुआ रातों-रात
यूँ हवाओं का बदलना
चांदनी रात को ग्रहण लगना
कुछ आवाजें सनसनाहट की
खौफ के साये इधर भी और उधर भी
लगता था सांप भी फुफकारता
जैसे विरह की आग में खुद को झुलसा रहा
रात यूँ ही गुज़रती गई
ना जाने कैसे-कैसे सोच की भेंट
मैं चढ़ती गई
सवेरा होते रहा ,अंधियारा छंटते गया
खौफ के बादल हटते रहे
एक नई सुबह का आगाज़
फिर भी मन में बैठी हुई वो बात कि
उन्मादी तो हम में से ही बनता होगा कोई
और फैलाता होगा उन्माद,बहाने से
हमारे ही आस-पास यहीं कहीं
कैसी बीतती होगी उनपे जो थे
हरदम उसके साथ
हरकदम साथ जो चलने को बढ़े
कुछ आगे फिर पीछे को खिसक गए
मुँह छुपा कर शरीफ उनसे निकलते होंगे
क्यों कोई हो जाता है उन्मादी
क्यों सोचने की शक्ति इतनी क्षीण हो जाती
दया कर,दया कर मेरे मौला
सही राह पे चलने की
फिर से इक मौहलत
अता कर ऐ खुदा.
दया कर तूँ दया कर.
Aparna Jha

नास्तिक

मेरी इस कविता को पढ़ कर अपने भाव अवश्य व्यक्त करें . क्योंकि मैं मानती हूँ कि इंसान नास्तिक जन्म से नहीँ होता और मैं ये भी मानती हूँ  कि ये एक अवस्था है नकारात्मक से सकरात्मक सोच की तरफ़ जाने का . @Ajha.04.08.15(बीते साल की कुछ यादें कविता के रूप में जिसे साझा कर रही हूँ.

   नास्तिक
 - - - - - -
क्या हुआ जो
जिंदगी से चले गये .
क्या सोचा _
जी नहीँ पाऊँगा ?
और
दिल का क्या होगा ?
हाँ ,
ज़िंदगी जी मैंने ,
तेरी आसक्ति से दूर ,
मैं नास्तिक हो गया .
अब मैं जीता हूँ ,
खुद की सुनता हूँ ,
अब मैं हूँ ,
मेरा विश्वास है ,
मेरी सोच है ,
एक मार्ग है ,
एक समाज है .
एक आदर्श है ,
लोगों की मदद के लिये
जज्बात हैं .
अब हाथ मेरे दयनीयता
के लिये नहीँ ,
दुवाओं के लिये उठते हैं .
अब मैं आज़ाद हूँ ,
आबाद हूँ ,
खुदा से इंसा बन गया हूँ .
सहारे की मुझे ज़रूरत नहीँ ,
तूफां का डर नहीँ ,
समाजों का डर नहीँ ,
रवायतों का डर नहीँ .
खुदा का डर नहीँ .
मेरा विश्वास मेरे साथ है .
कहते हैं कि
इंसान कभी नास्तिक पैदा नहीँ होता ,
ये तो हालात है जो
नास्तिक बनाती है .
नास्तिकता बुरी तो नहीँ .
खुद को जगाने की ,
खड़ा रखने का विश्वास है .
और
जो जग गया ,
उसे कैसा डर _
इंसान का !
भगवान का ? 
मौत तो शरीरों की होती है .
आत्मा को क्या कोई मार सका है.@Ajha.04.08.16

भूतबंगला

"भूत बंगला"

मत खोलो
इन खिड़कियों को
ये तो भूत बंगला है
सुना है ,कोई अंदर इसमें
घुट घुट के रोया था
सपनो को देखने की आदत थी
सारे जहाँ को अपने सपनों में
संजोया था
खिदमतबरदारी में गुजरी थीं
सुबहो शामें
ग़मों में जो था अबतक उसे हंसाया था
रात होती,थक गया हो हर कोई,फिर भी
रात भर अंधियारे में कबीरा की धुन
लोरियों की मानिंद खुश हो
पहरेदार उसे सुनाता था
परिंदों की आवाज़ें सुब्ह-सुब्ह खिड़कियों से,शायद पेट भर दाना उन्हें भी खिलाया था
ये कौन था जिसने जिंदगी की
नैया उसकी डुबोई
खिड़कियाँ हमेशा के लिए बंद हो गईं
गुज़रो उधर से तो आवाजें सिसकियों की
आज इतने दिन गुज़र गए
कई सारे किस्से गढ़ गए
कोई तारीख और कई फसाने बन गए.
क्या ये सचमें कोई भूत बंगला है
या फिर आज भी इसके अंदर
कोई इंसान सहमा खड़ा है????
Aparna Jha
04.08.17

ऐसा क्यों

ऐसा ही था
यही होना ही था तो
इंसान क्यों बनाया
देकर फ़क़ीरी
एहसान क्यों जताया
चलो और कुछ नहीं तो
अकेले में ही
खुद को संभाल लेती
आसमान तले ही सही
जीवन गुज़रती
ये सोच के जी लेती
पूर्वजन्म के मेरे पाप बहुत हैं
परन्तु नन्हा सा ये बच्चा !
तुमसे ही पूछती हूँ
क्या इसने भी कोई ऐसे
कर्म किये हैं...
या फिर तेरी फितरत ही
 है सताने की, या
ये कौन से जन्म का
तूँ बदला मुझसे ले रहा
चल मान लिया कि
मैं कसूरवार ही सही
भोग लुंगी वो सब तुम्हारी
सोची-समझी
तूँ तो भगवान है
तूँ सभी कुछ जानता है
बस इतना तो बता दे
मेरे सज़ा काटने की
मियाद क्या है
मैं नही चाहती मेरे भोगे का
साया भी इस पर पड़े
मुझे तो बस जिंदगी है
इसकी बनानी
मन में बस यही ठानी
और मान लिया है कि
जीवन के संघर्ष,नित्य प्रति
चलती ही रहेगी
बस एक लेना है वादा तुझसे
हे भगवान !क्या साथ है
तूँ मेरे इस जीवनपथ पे?

गणतंत्र

"गणतंत्र "
बचपन में जिनके
किस्से- कहानियाँ
सुनी थी ,
उन्हीं बातों को
सवालातों को
बड़े होने तक
लिये चली थी
अब मैं आज़ाद हूँ 
अपने सोच की परवाज़ हूँ ,
बस यही सोच से
साम्यवाद को अपनाया था ,
"गणतंत्र" को आधार बनाया था
मार्क्स अपना खुदा बन बैठा
जवानी में इस कदर
छाया इसका नशा ,
सर चढ़ कर
ये यूँ भी बोलेगा _
समाज बदलने की ताकत ,
खयालात बदलने की ताकत ,
और फिर समदृष्टि
दिवास्वप्नों में आने लगी
नई दुनिया
ख़ुशी की दुनिया
दिखाने लगी
नींद खुली तो पाया _
अपनेलोगों ने ही तो
इस 'वाद और तंत्र' में
घुन लगाया 
समझ में बस इतना आया
'वाद और तंत्र' कोई भी
बुरा नहीं होता .
ये तो परिस्थितियाँ हैं
इंसानों से, समाजों में
बन जाती हैं .
गरीबी में साम्यवाद
अमीरी में बाज़ारवाद
और साम्राज्यवाद
सोया रहा तो नित गुलामी
जाग गये तो " क्रांति " पक्की
अब के समझे तो जागे
वरना फिर कभी
ना बढ़ पाओगे आगे.
@Ajha.26.01.17
(स्वरचित,मौलिक रचना)
©अपर्णा झा

Tuesday, 14 August 2018

स्वतंत्रतादिवस

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स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

भविष्य निर्माण

"भविष्य निर्माण"

मेरी कुछ आदतें जो मेरे बेटे और पतिदेव को बिल्कुल पसंद नहीं, पर आदतन मैं ऐसा करती हूं.मुझे ऐसे में कभी कभी उनसे 'जाहिल-गंवार' के विशेषण भी सुनने पड़ जाते हैं.रास्ते चलते हुए आंख-कान को हर जगह दौड़ाते रहती हूं कि शायद कुछ बातें मुझ से छूट ना जाएं... और कोई अलग सी बात लगी तो वहां रुक कर उसे पूरी तरह से समझना चाहती हूं,जबतक कि वस्तुस्थिति पूरी तरह से समझ में ना आ जाय.
ऐसा ही एक वाकया रहा जब हाल ही में मैं अमृतसर गई थी.शाम का समय, स्वर्ण मंदिर के बाहरी परिसर में  चलते हुए....पता नहीं ये इलाका पहले कैसा था पर आज सुंदर-सुंदर गार्डेन चेयर और एक खास ऊंचाई पर पूरे रास्ते लैम्पपोस्ट. कल्पना लोक में विचरने के लिये और क्या चाहिये..
चलते-चलते मेरी नज़र,एक कुर्सी पर कुछ less privileged class के बच्चे आपस में बड़े जोशो-खरोश में बातें कर रहे थे,उनपर पड़ी.मैं  उनके बात करने के तरीकों से आकर्षित हो जिज्ञासावश उनमें शामिल हो गई.मेरी ओर बच्चे देख मुस्कुराने लगे.पूछा क्या बातें हो रहीं हैं...!सभी बच्चे एक साथ बोल पड़े...कल रात इसके पापा ने बहुत पी ली थी तो इसके पापा ने बड़ी पिटाई की...तबतक दूसरा कहने लगा..."आँटी नहीं ऐसे हुआ...और फिर तीसरा अपने बात...."
मतलब ये कि इन बच्चों को भी पता था कि दारू के नशे में की गई मार-पीट गंभीरता से नहीं ली जाती और उसका असर ना उनके बच्चों की दोस्ती पर होता है और ना पियक्कड़ों की दोस्ती पर...हाँ, थोड़ी देर के लिए  झुग्गी परिसर में मौज-मस्ती आ जाती है...बस जो असर होता है वह उनकी माँ-बहनों पर जो एक तरफ उस व्यक्ति की जान बचाना चाहते हैं और दूसरी तरफ अपनी शर्मिंदगी को पर्दे में छुपाने का नित्य ही एक अथक प्रयास करते रहते हैं...
मैं हैरान इस बात से हुए जा रही थी कि
हम सोचते हैं बड़ों में ही परिपक्वता होती है...संवेदनाओं का भान भी बड़े होकर ही आता है ....बच्चे तो बच्चे हैं,आज सुने, कल भूल जाएंगे.पर,मुझे लगा कि मैं बिल्कुल गलत हूँ.हर उम्र के लोग अपनी तरह के लोग ढूंढ अपना समूह बना ही लेते हैं,जहां वे अपनी भावनाओं के उद्गार व्यक्त करते हैं,चर्चाएं करते हैं, समान परिस्थियों में आई विषमताओं को तुलनात्मकता के आधार पर सोच खुद को वर्तमान और भविष्य हेतु तैयार होने की नींव अपने बचपन में ही जमा लेते हैं.
और एक हम बड़े लोग इस सोच में बैठे होते हैं कि उनके बच्चों के भविष्य का निर्णय उन्हें ही लेना है,डॉक्टर-इंजीनयर बना कर...
क्या ये विडम्बना नहीं तो और और क्या है...!!!
अपर्णा झा

बस यूँ ही

कुछ यूंही,हल्की-फुल्की सी...
दोस्तों की बातें
सोहबतों के किस्से
कुछ ऐसे ऐसे
चुपचाप बिस्तर में लेटे
यादों में खोई
बातों में खोई
करवट बदल बदल
पूरी रात यूँ ऐसे मैं सोई
मुस्कुराती,
गुनगुनाती
रूठती,मनाती
ना जाने कैसे-कैसे ख्वाबों को
मैं बुन जाती
सिलसिला गुफ्तगू का
तुझ से मुसलसल चलता रहा
ना कोई फर्क पड़ा
तेरे आने से पहले
तेरे जाने के बाद
अपर्णा झा

शख्सियत

"शख्शियत"
यूँही गुज़रे रविवार की शाम हम दोनों पति-पत्नी बैठकखाने में बैठे,गप्प-शप्प में लगे थे... अचानक ही टीवी पर चल रहे  साक्षात्कार पर नज़र गई.आजतक पर 'सीधी बात' में  श्वेता सिंहजी की बातें डॉ फ़ारुख अब्दुल्लाह साहब से हो रही थी.हम दोनों फ़ारुख साहब के जवाबों से हैरान हुए जा रहे थे कि आज गर्म जोशी में ऐसी नरमी तो देखी ही नहीं थी.तर्क तो सुभानअल्लाह...दिलखुश कर दिया.हद तो तब हुई जब उनसे मौजूदा प्रधान मंत्री के बारे में राय देने को कहा.फ़ारुख साहब बड़े अदब से कहने लगे कि "कोई भी प्रधानमंत्री बुरे नहीं होते और कभी भी देश और नागरिक का बुरा नहीं सोचते हैं.जो भी फैसले एक प्रधान मंत्री लेता है वह उसके बर्तमान के परिस्थितियों को देखते हुए देश और लोगों के हक़ में लेते हैं.अभी के प्रधानमंत्री भी वही कर रहे हैं,ये बात दीगर है कि उनके फैसलों में कौन साथ है या नहीं...क्या इस बात की उनकी तारीफ़ ना हो जो अपने प्रधान मंत्री होने के साथ लाल किले से अपने पहले भाषण में शौचालयों की बात करे, बड़े हिम्मत की बात है...पर सच्चाई तो यही,यह तथ्य तो है ही,लोगों के जनजीवन से जुड़ा अहम मसला तो है ,पर कितने प्रधान मंत्रियों ने इसे इस प्रकार से कहने की हिम्मत की....!
ये साक्षात्कार समाप्त हुआ तो उंगलियां रिमोट के बटन को फेरते रजत शर्मा के आपकी अदालत तक ले गई.हालांकि वहां रिपीट प्रोग्राम ही दिखाया जा रहा था पर हमारे लिये वह पहली बार था.आज के पाकिस्तान के भावी प्रधान मंत्री और हमारे लिये पूर्व क्रिकेटर इमरान खान अपने दलीलों पर सफाई पेश कर रहे थे.वो भारत-पाकिस्तान के क्रिकेटी संबंधों पर प्रकाश डालते रहे.बातों-बातों में यह भी बताना ना भूले कि कैसे भारत से हारने पर घर वापसी पर सज़ा उनके एयरपोर्ट पे तैनात लोग ही देना शुरु करते.और जीत हुई तो वही लोग जश्न का अंबार सजा देते.
पर एक बात पक्की कि पाकिस्तानी नागरिक भारतीयों को बहुत ही प्यार और एहतराम देते हैं.जब भी पाकिस्तान के मैदान पर हिंदुस्तान के संग मैच हो, तो पाकिस्तानी की खुशी,उनका भारतीयों के स्वागत में गर्मजोशी,तो दस्तरख्वान बिछाने में या जुबाँ से कोई ऐसी बात ना निकले की नाराजगी का सबब बन जाये...(थोड़े मज़ाक के अंदाज़ में बोले कि ये बात और है कि हमें इसकदर गर्मजोश मेहमानी का पता ना था कि हमारे खिलाड़ी खेल को बुरी तरह से हार जाएंगे)...पूर्व में कही सच्चाई आज वहां के चुनाव परिणाम  ने साबित कर दिखाया.
ये दो साक्षात्कार ऐसे थे कि हमलोग यही सोच रहे थे कि आदमी चाहे कोई हो...बड़ा हो या छोटा,अमीर हो चाहे गरीब, नेता हो या अर्दली...हर किसी के दो पहलू होते हैं_अच्छे और बुरे...और परिस्थितियों के अनुसार ये दोनों पहलू समय समय पर बदलते रहते हैं.वरना ये जो दो साक्षात्कार देते हुए इंसानों को,जो कि लोगों के बीच आग उगलते रहते हैं, आज अकेले में कैसे इतना तर्कपूर्ण बातें करते देख रहें हैं हम...!
काश कि देश की जनता ने इनके साक्षत्कार पर भी कुछ गौर फरमाया होता.
ऐसे में मुझे याद आता है मुंशी प्रेमचंद जी की वो कहानी 'पंच परमेश्वर'.
सच ही तो कहा था कि न्याय की कुर्सी पर बैठ गलत सोचा ही नही जा सकता,शायद उस इंटरव्यू के दौरान ये दोनों ही व्यक्ति अपनी उस शख्सियत को जी रहे थे जिन्हें कि रोजगार के ग़म ने इन्हें कहीं इनसे दूर कर दिया था.
तब की कही बातें आज भी कितनी सटीक मालूम होतीं हैं.मुंशी प्रेमचंद को उनके 'पंच परमेश्वर' से यादकर उनके जन्मदिन को मनाएं.नमन.
अपर्णा झा

भ्रम

"भ्रम"
क्यों तलाश तुझे उसकी
जो तुझ से अलग
कहीं और ना गई
खुशियां तेरे अंतस में
तेरा ईश्वर साक्षात तेरे मन में
शायद तेरे लिये
कुछ नया सोच रहा हो
और इस कारण
तुझे लगता है कोई
तुझसे विलग हो गया हो
एक दिन देखना
तेरा भ्रम टूटेगा
एक दिन कोई तेरे अंतस में
जोर से *'धप्पा' दे ये कहेगा
पगली ! कहाँ है तूँ खोई
किसे तूँ इतनी देर से
है ढूंढ रही...
देखो तो..
मैं तेरे पास हूँ
तेरे अंतस में
तेरी सोच में
तेरे ख्वाब में
तेरे हर सवाल के
जवाब में
क्यों भटक रही तूँ
इधर-उधर मेरी तलाश में
जबकि मैं तेरे पास हूँ
तेरे साथ हूँ
जाओ...
व्यर्थ ही गया वक्त और
परेशानी दुनिया भर की
मोल लेली
उदासी दुनिया भर की
चल उठ!
अब तो मुस्कुरा
बावली भई
अब तो पास आ ज़रा
अब तो पास आ ज़रा
मुस्कुरा,मुस्कुरा...
अपर्णा झा

*लुकाछिपी के खेल में जिसे पकड़ते हैं उसके पीठ पर धाप दे कहना होता है 'धप्पा'...यह एक अनिवार्य नियम होता है इस खेल का.☺

बचपन बेमेल

पस्त नहीं कहना इसे
चिंतन में कहीं विलीन है
शायद  शारदे मां के दरबार में
ज्ञान वाचन में तल्लीन है
क्यों परेशान कर रहे इस बच्चे को
याद नहीं खुद की
किताबों पर रख माथे सोया करते थे
और बहाने भी कैसे कैसे...
इसी तरह से सबक हम अपनी
नींद में भी याद करते थे
कहते थे माता सरस्वती नींद में
आएंगी
उलझे सवालों को सुलझाकर जाएंगी
सच ही तो था...
कहां था इतनी पढ़ाई का बोझ
भविष्य संवारने की कहां थी तब
माँ की गोद से ही इतनी होड़
क्यों नहीं अपने ही
इन किस्सों को
अपने बच्चों को सुना नहीं पाते
कैह भविष्य को नाग ये भीषण
भ्रम के इन नागों से डराते हैं
क्यों आखिर क्यों
भविष्य का सुनहरा सपना दिखा
किताबों से डराते हैं
अपने ही बच्चों के लिये क्यों
आखिर क्यों राक्षस बन जाते हैं
आगे क्या होगा....
नाग डसेगा या राक्षस निगलेगा या
भविष्य सुनहरा होगा
सच तो यह है कि वर्तमान ही
नाग बना है,राक्षस बन
निगलने की धमकी देता है
बस करो अब ये खतरनाक खेल
ये तो है बचपन सँग बेमेल
सो जाने दो अभी थोड़ा
खो जाने दो मीठे सपनो में जरा
कि विद्यादात्री आएंगी
माथे पर हाथ फेर कर जाएंगी
और कहेंगी...
बेटा ये तेरे खाने-खेलने के
दिन हैं
स्वस्थ और खुश हाल रहे तूँ
पढ़ाई भी हो जाएगी
भविष्य भी संवर जाएगा
ना बोझ बन,ना खुद को बोझ समझ
खुश रह,स्वस्थ रह
आबाद रह
मां तेरी तूझको यह
आशीष देती है,
यह आशीष देती है.
अपर्णा झा

खिड़कियों को तलाशती जिंदगी

"खिड़कियों को तलाशती जिंदगी"

सुनते आए थे
जीवन के आखिरी पलों तक
इंसान अपना वजूद तलाशता
आगे-पीछे की दौड़ में खुद को आंकता
शायद माटी, दरो-दीवार भी उसे पुकारती

सुनते आए थे
यादों की लकीर बहुत हल्की होती है
पर नहीं,समय के साथ और
गहराती है,उन यादों की लकीरों को
है पहचानता,
जिसे इंसान जीवन पर्यन्त है तलाशता

सुनते आए हैं
जन्म और मृत्यु के मध्य कितनी ही
खिड़कियां, और एक चक्र
आजीवन बंद होने और खुलने का
याद रहती हैं ये खिड़कियां
मन के एक कोने में खोल रखा है

सुनते आए हैं
हवाओं का रुख ये खिड़कियां
पहचान लेती हैं
और बचा लेती ही अनहोनियों से
आंधियों में बंद होने को आतुर
और परवाज़ के लिए खुला आसमान दिखाती है

खिड़कियों को गौर से देखो
इंसानो की ये फितरत बताती है
माना घर के लिए चार दीवार जरूरी है
पर खिड़कियां बंद रखी जाएं
ये कोई मजबूरी तो नहीं है.

उठो ,जागो
सूर्य की किरणें ,शीतल हवाएं
दस्तक दे रही खिड़कियों पे
खोलो पट्ट जरा तो झांको
ये भोर कुछ कह रही है.
अपर्णा झा
04.08.17

मन रोता है...

"मन रोता है कि ये कैसी राजनीति...."

एक फ़िल्म आई थी मधुर भंडारकर की 'page 3'.फ़िल्म हालांकि टीवी पर ही मैंने देखी थी.दो-तीन दिन तक सोचने में ही गुज़र गये. परिणामस्वरूप अखबार की रोज़ की वो पत्रिका का 'पेज 3' जिससे सुबह का तड़का लगता था, विद्यार्थी जीवन में जो चस्का लगा था,वो भूत उतर गया.समझ गई हूँ,बस, बड़े लोगों की कुछ घिनौनी बातें, बहुतों के लिये जीवन की हकीकत है. आज की ही बात नहीं,यही होता आया है.रसूखदार लोगों को किसी का डर नहीं...ना समाज का,ना न्यायपालिका.
अपर्णा झा

बहुत कुछ देखना है

"क्या-क्या नहीं, बहुत कुछ देखना
है बाकी..."

विरोध करना अच्छी बात है.
एकजुटता दिखाना बहुत अच्छी बात है,देशहित की बात है.इससे सरकार और देश मजबूत होता है.लोगों में आत्मविश्वास बढ़ता है.पर आज हालात को यदि तुलना की जाय तो क्या ये जो विपक्षियों की एकजुटता वाकई उन 40 बालिकाओं के हक की लड़ाई है?क्योंकि यदि आश्रमों की बात हो तो बीते कुछ समय में जितने भी बाबा पकड़े गए हैं वह बालिकाओं के उत्पीड़न का ही भंडाफोड़ है जिसमें की विभिन्न क्षेत्रों के रसूखदार लोगों की मिलीभगत रही.वो दिल्ली का मामला हो या किसी और राज्य का....
कहाँ इसप्रकार की विपक्षियों की एकजुटता दिखी.अचानक से हमारे नेताओं को उनके ज़मीर
ने अचानक से कैसे आवाज़ दी है और वह भी बिहार के मामले ने?
कहीं ये एकजुटता बंगाल के मानवीयता से जुड़ने का दूसरा कदम तो नहीं...पहला कदम तो शायद कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री के ताजपोशी का तो नही था?
यदि ये सारी दलील यदि गलत है तो विपक्ष में सरकार की तरह इतनी ताकत तो होती ही है कि वो मुजरिमों को कड़ी से कड़ी सजा दिलवा तो सकता है.
अपर्णा झा

सखियाँ

मेरी सब सखियाँ  ऐसी हैं जो सिर्फ और सिर्फ मन से जुड़े हुए हैं.इस दोस्ती को16 साल हो चुके हैं...

"सखियां"
सखियों से मिलना...
कितने पल जी उठे थे
चेहरे फिर सबके खिल गए थे
मासूमियत ने उठाये कई सवाल
बहुत दिनों की शिकायत
तुम बस लिखती हो
सबके लिए वो सब कहती हो
दूर क्या गई हमसे
हमे भूल जाने की
तुम भूल करती हो
कल ही की तो बात थी
बैठे हम साथ साथ थे
कितनी ही शिकायतें थीं
कर डाली,खुद से
तुमसे और दुनिया के खयालातों से
मजबूरिये रोज़गार की
संगी जो ठहरे थे
भला बुरा सब कहना-सुनना था
तेरा साजन-मेरा साजन कह
कितने ही मन उद्गार बताना था
और फिर वही हंसी ठिठोली
मेरे हमजोली
याद पुरानी बातों को कर
कितने टप्पे बिस्तर पर
घुलट- पलट कर
लम्हों को जी बैठे थे
कितनी तेरी,कितनी मेरी को
कह बैठे थे
गली के उस चाचा को फिर
याद किया था
गुर्राना उस चाची का सोच
मन शैतान हुआ था
फिर उनकी नैन-मटक्का से
आंखें शरमाई थीं
कितनी कुछ बातें तब याद हुईं थीं
जानें कितने दिन बाद मिले थे
तब के बिसरे अब जो मिले थे
लगता था ऐसे
कल  भी तो मुलाकात हुई थी
लगता है कल ही तो बात हुई थी
कल ही तो मिले थे
आज लगता है जैसे
कितने पल बीत गए हैं
फिर से हम यादों में हैं बस गए .
अपर्णा झा17.06.17

मौसम

"मौसम"
मौसम की खूबसूरती को देखो
बदलते रंगों के इंद्रधनुष को देखो
इसमें मिज़ाज़ों की नजाकत भी है
और नफासत भी
बेरुखी भी मिलेगी और जुदाई का सबब भी
जीवन चक्र की मानिंद है ये मौसम
कोई रूठा है,यदि प्यार है तो फसल
देगा ही...
बंजर होगी जो जमीन,उससे उम्मीद कैसा!!!
सावन का मौसम,हरियाली और कुछ
फुहार चहुं ओर...
मैं तो चली रूठे प्रियतम को मनाने
देखो सखियाँ,तुम ना रूठना
ज्यों तो रूठे, मौसम बदल जायेगा
और,फिर  इन्तिज़ार ही इन्तिज़ार
रह जायेगा
सच यही कि इन्तिज़ार की
उम्र होती है लंबी, शायद
नाख़तम होने की फितरत भी....
आओ मैं मनाती हूँ
देखो,फिर ना कभी रूठना,
ना रूठना.
अपर्णा झा