"भूत बंगला"
मत खोलो
इन खिड़कियों को
ये तो भूत बंगला है
सुना है ,कोई अंदर इसमें
घुट घुट के रोया था
सपनो को देखने की आदत थी
सारे जहाँ को अपने सपनों में
संजोया था
खिदमतबरदारी में गुजरी थीं
सुबहो शामें
ग़मों में जो था अबतक उसे हंसाया था
रात होती,थक गया हो हर कोई,फिर भी
रात भर अंधियारे में कबीरा की धुन
लोरियों की मानिंद खुश हो
पहरेदार उसे सुनाता था
परिंदों की आवाज़ें सुब्ह-सुब्ह खिड़कियों से,शायद पेट भर दाना उन्हें भी खिलाया था
ये कौन था जिसने जिंदगी की
नैया उसकी डुबोई
खिड़कियाँ हमेशा के लिए बंद हो गईं
गुज़रो उधर से तो आवाजें सिसकियों की
आज इतने दिन गुज़र गए
कई सारे किस्से गढ़ गए
कोई तारीख और कई फसाने बन गए.
क्या ये सचमें कोई भूत बंगला है
या फिर आज भी इसके अंदर
कोई इंसान सहमा खड़ा है????
Aparna Jha
04.08.17
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