"अंतर्द्वंद"
ये कैसा अंतर्द्वंद
ये कैसी छटपटाहट
मन कहे कुछ और
दिमाग कहे कुछ और
एक इश्तहार
जो चिपकी लगी थी दीवार
शक्ल बड़ी थी जानी पहचानी
लोगों का था उसमें अटूट विश्वास
आज उसी चेहरे में
क्यों उन्मादी का रंग है दिख रहा
मन अशांत बेचैन सा है क्यों मेरा
वो तो अपना काम कर
है चैन से सो रहा
कल तक उसकी बातें ,उसकी जज़्बातेँ
ठीक सी ही तो थीं लग रही
एक-एक शब्द जो बोले
लगता था कसौटी पर खूब गढ़ी
क्या हुआ रातों-रात
यूँ हवाओं का बदलना
चांदनी रात को ग्रहण लगना
कुछ आवाजें सनसनाहट की
खौफ के साये इधर भी और उधर भी
लगता था सांप भी फुफकारता
जैसे विरह की आग में खुद को झुलसा रहा
रात यूँ ही गुज़रती गई
ना जाने कैसे-कैसे सोच की भेंट
मैं चढ़ती गई
सवेरा होते रहा ,अंधियारा छंटते गया
खौफ के बादल हटते रहे
एक नई सुबह का आगाज़
फिर भी मन में बैठी हुई वो बात कि
उन्मादी तो हम में से ही बनता होगा कोई
और फैलाता होगा उन्माद,बहाने से
हमारे ही आस-पास यहीं कहीं
कैसी बीतती होगी उनपे जो थे
हरदम उसके साथ
हरकदम साथ जो चलने को बढ़े
कुछ आगे फिर पीछे को खिसक गए
मुँह छुपा कर शरीफ उनसे निकलते होंगे
क्यों कोई हो जाता है उन्मादी
क्यों सोचने की शक्ति इतनी क्षीण हो जाती
दया कर,दया कर मेरे मौला
सही राह पे चलने की
फिर से इक मौहलत
अता कर ऐ खुदा.
दया कर तूँ दया कर.
Aparna Jha
Saturday, 18 August 2018
अंतर्द्वंद
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