"गणतंत्र "
बचपन में जिनके
किस्से- कहानियाँ
सुनी थी ,
उन्हीं बातों को
सवालातों को
बड़े होने तक
लिये चली थी
अब मैं आज़ाद हूँ
अपने सोच की परवाज़ हूँ ,
बस यही सोच से
साम्यवाद को अपनाया था ,
"गणतंत्र" को आधार बनाया था
मार्क्स अपना खुदा बन बैठा
जवानी में इस कदर
छाया इसका नशा ,
सर चढ़ कर
ये यूँ भी बोलेगा _
समाज बदलने की ताकत ,
खयालात बदलने की ताकत ,
और फिर समदृष्टि
दिवास्वप्नों में आने लगी
नई दुनिया
ख़ुशी की दुनिया
दिखाने लगी
नींद खुली तो पाया _
अपनेलोगों ने ही तो
इस 'वाद और तंत्र' में
घुन लगाया
समझ में बस इतना आया
'वाद और तंत्र' कोई भी
बुरा नहीं होता .
ये तो परिस्थितियाँ हैं
इंसानों से, समाजों में
बन जाती हैं .
गरीबी में साम्यवाद
अमीरी में बाज़ारवाद
और साम्राज्यवाद
सोया रहा तो नित गुलामी
जाग गये तो " क्रांति " पक्की
अब के समझे तो जागे
वरना फिर कभी
ना बढ़ पाओगे आगे.
@Ajha.26.01.17
(स्वरचित,मौलिक रचना)
©अपर्णा झा
Saturday, 18 August 2018
गणतंत्र
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